शनिवार, 26 जुलाई 2008

ये कहां आ गए हम -

दुनियां मेरे आगे...........

खबरिया चैनलो का नया सूत्र वाक्य है "वी कान्ट वेट फॉर ऐक्सीडेंट,वी हेव टु क्रिएट ऐक्सीडेंट" . पिछले दिनों राजधानी में इसी सूत्र वाक्य पर अमल हुआ हालांकि देश के दूर दराज बैठे लोगो को इसका अहसास भी नहीं हुआ होगा। टीवी पर फुटेज चल रहे थे ,स्लग था- दिल्ली के दरिंदे। एक महिला को मोहल्ले के लोग बेतहाश पीट रहे थे। हर चैनल मानवाधिकारों की दुहाई देता दर्शकों से फोन कॉल,एसएमएस मगा रहा था। घटना दिल्ली के मंडावली इलाके की थी इसलिए उत्सुकता ज्यादा थी यह जानने की, कि महिला की पिटाई के वक्त कैमरे वहां कैसे पहुंच गये,यह सोच ही रहा था कि एक पत्रकार मित्र का फोन आ गया, छूटते ही बोले "विजुअल देखे? आज दिन भर खेलने के लिए हो गया" मैने कहा क्या यह स्टोरी आपने की है तो उनका जवाब था नहीं दूसरे चैनल के स्टिंगर से विजुअल जुगाडे है। पर इसके बाद उन्होने जो बताया वह भयावह था ।
घटना की रात एक स्वतंत्र चैनल और एक सातवें आसमान पर रहने वाले चैनल के स्टिंगर वहां मौजूद थे। पीडित महिला अपने उपर बलात्कार करने वाले मकान मालिक के खिलाफ जोर - जोर से कुछ कह रही थी और यह तमाशा काफी देर से चल रहा था लेकिन इससे विजुअल अच्छे नहीं बन पा रहे थे, इसलिए इन दोनो ने ही आसपास के लोगो को उसे मार कर कॉलोनी के बाहर निकालने के लिए उकसाया और वहां मौजूद औरतो से भी यह कह कर
पिटवाया कि यह महिला मोहल्ले का माहौल खराब कर रही है। फिर क्या था लोकतंत्र में भीड़ का कोई तंत्र तो होता नहीं । लोगो ने उसे पीटना शुरु कर दिया और जैसे ही यह सब शुरु हुआ वहां मौजूद दोनो तथाकथित पत्रकारों ने अपने कैमरे चालू कर दिए। बस मिल गए बढिया विजुअल।
मुझे लगा खबरिया चैनलों की इस भीड़ में क्या किसी चैनल में इतनी हिम्मत है कि इस घटना के असली दरिंदों का चेहरा दुनियॉ को दिखा सके। लोकतंत्र के इस चौथे स्तंम्भ के बेजोड़ तमाशे के बाद हर कोई संतुष्ट था, टीवी वाले अपनी टीआरपी को लेकर खुश थे तो महिला आयोग के सदस्य टीवी पर दिखाई गई अपनी प्रतिक्रिया को देखकर, पुलिस मारपीठ कर रही भीड़ पर केस लगाकर संतुष्ट थी तो आम आदमी"क्या जमाना आ गया है"कहकर ही संतुष्ट था।
मेरी ऑखों के सामने डॉली का चेहरा आ गया ,उसकी शादी वाले दिन ही लड़के वालो ने लक्जरी कार की डिमांड कर दी , डॉली के घर में एकाएक तनाव व गुस्से का माहौल हो गया ,डॉली के भाई मेरे पारिवारिक मित्र है इसलिए इस पूरे माहौल में मेरा सीधा हस्तक्षेप हो गया डॉली भी बेहद दुखी थी हलांकि वह आलोक को पहले से नहीं जानती थी लेकिन उसके चेहरे पर एक अंजान डर साफ नजर आ रहा था। हमारे एक अन्य मित्र, जिनका जिक्र में ऊपर कर चुका हूं , ने तुरंत ही कहा कि हमें झुकना नहीं चाहिए , मै अपना कैमरामैन बुलवाता हूं , आने दिजिए उन दहेज के लालचियों को , सारे देश के सामने इन घटिया लोगो को सजा देंगे और इसको टीवी पर लाइव दिखायेंगे। हद तो तब हो गई जब डॉली के कुछ दूर के रिश्तेदार इसके लिए तैयार भी हो गए , भला हो दोनों घर के बुजूर्गों का जिन्होने आपस में बात करकें गलतफहमी दूर कर ली , गलतफहमी इसलिए कह रहा हूं क्योकिं वह
डिमांड किराए की लक्जरी कार के लिए थी , जिसमें लड़की को विदा भर किया जाना था । वैसे तो डिमांड किसी भी तरह की गलत होती है लेकिन यहां डिमांड से ज्यादा संवादहीनता थी । बात करने की बजाये सभी ने आक्रमक रुख अपना लिया। यदि उस दिन घर के बुजूर्ग नहीं होते तो पता नहीं क्या हो जाता।शायद यह शादी एक तमाशा बनकर रह जाती ।जानवर तो जानवर का शिकार तब करता है जब उसे भूख लगी होती है लेकिन मीडिया की भूख तो ऐसी है जो हमेशा बाज़ारियत भरी आंतों को कुलमुलाती रहती है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में इस तरह की बातें अक्सर
सुनने में आती है लेकिन पिछले कुछ समय से इन्होने अति कर दी है । कुछ महिने पहले की बनारस की घटना याद आ गई जहां अपनी छोटी-छोटी दुकानों को हटाने का विरोध कर रहे विकलांगो को एक चैनल के रिपोर्टर ने यह कहकर आत्मदाह करने पर मजबूर कर दिया कि तुममें से एक आदमी आग लगा ले तो टीवी पर खबर अच्छी चलेगी और सरकार पर तुम्हारी मांगे मानने का दबाव पडेंगा। लुधियाना में एक चैनल के पत्रकार ने प्रदर्शन कर आत्मदाह की धमकी दे रहे व्यक्ति को खुद ही माचिस पकड़ा दी और आग लगाने में पूरा सहयोग किया पुलिस की तत्परता से ही उस व्यक्ति की जान बच सकी। बचपन में हमारे गांव सिहावल में कुछ लोगों ने एक महिला को पत्थर से पीट-पीट कर मार डाला था और हमें बताया गया कि वह डायन थी और बच्चों पर जादू टोना करती थी,यह सुनकर हम सभी बच्चे डर गये और चुपचाप सो गए।
आज उस घटना के कई सालों बाद मेरे गांव के लोगो,टीवी चैनलों और ऑतकवादी संगठनों में कोई फर्क नजर नहीं आता,ये सभी आम जनता और अपने से जुडे लोगो को बरगलाते है और उन्हे मौत के मुंह में झोकने से पहले एक पल भी नहीं सोचते.और इस पेशे से जुडे लोग जो असलियत जानते है वे या तो अपना हित साध रहे है या डायन से डरे बच्चों की तरह चुपचाप सो रहे है।
ऐसे अनेक उदाहरण भरे पडे है जब टीवी पत्रकारों ने खबरें बेचने के लिए ऐसी हरकतें की है। सड़क पर शव को लेकर चक्काजाम और दूल्हों की पिटाई जैसी अधिकांश खबरें पूर्व निर्धारित होती है।20 -20 मैचों के दौरान भारत के ज्यादातर मैचों से पहले ही लोगो से जश्न मनवा कर विजुअल रख लिए जाते थे और यदि हमारी टीम मैच जीत गई तो तुरंत ही लोगो को जश्न मनाता दिखाकर एक चैनल दूसरे चैनल से आगे हो जाता है। वस्तुत:अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जितना गलत फायदा हम मीडिया से जुड़े लोग उठाते है उसकी बानगी कहीं ओर देखने को नहीं मिलती। बिना इस एहसास के टीवी चैनल इन खबरों को दिखाते है कि यह खबर राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित हो रही है और दूर दराज में बैठे दर्शक पर इसका कितना गलत प्रभाव पडेगा।
मंडावली में जिस औरत को पीटा गया,उसके साथ बलात्कार हुआ था। वह न्याय पाने के लिए भटक रही थी। भीड़ ने सरेआम उसे पीटकर, उसके कपड़े फाड़कर उसका दूसरी बार बलात्कार किया और खबरिया चैनलों ने दिनभर इस खबर को चलाकर उसका बार - बार बलात्कार किया। क्या यह बलात्कार कानूनी रुप से मान्य है, क्या
यहां आकर मानवाधिकार कुंद हो जाते है ।हर शुक्रवार को हर चैनल में एक मीटिंग होती है जिसे टीआरपी मीटिंग कहा जाता है और उसमें चर्चा होती है - “पिछले हफ्ते हम यहां थे , अब यहां आ गए”
साभार - जनसत्ता ...