शनिवार, 30 मई 2009

चुनाव में बिकी प्रेस ख़तरे में है - ख़बरदार!




प्रभाष जोशी ने मीडिया मंडी के विरोध में मशाल जला ली है, इसे बुझने नहीं देना है, इस आलेख में आपातकाल के दौर का उनका अनुभव, उन मीडिया मालिकों और पत्रकारों के मूंह पर तमाचा है जो एडिटोरियल को एडवरटोरियल बनाने पर तुले है, प्रभाष जी ने आंदोलन शुरु कर दिया है लेकिन पत्रकारिता का अपहरण करने वालों ने उनके किसी भी बयान को कवरेज ना देने की साजिश की है, रोहतक हो या इंदौर, प्रभाष जी जहां भी कार्यक्रमों में शामिल हो रहे है, इक्का दुक्का अखबारों को छोड़कर कोई अखबार चर्चा तो दूर सूचना भी नहीं दे रहा, साफ है यह वहीं अखबार है जिन्होने चुनाव में अपना तो सबकूछ बेचा ही हमारे विश्वास को भी गिरवी रख दिया....



हिंदी का पहला अखबार उदंत मार्त्तण्ड कोलकाता से 30 मई, 1826 को निकलना शुरू हुआ। उसके हर अंक के अंत में लिखा रहता था,
यह उदंत मार्त्तण्ड कलकत्ते के कोल्हू टोला के अमड़ा तला की गली के 37 अंक की हवेली के मार्त्तण्ड छापा में हर सतवारे मंगलवार को शाया होता है। जिनको लेने का काम पड़े वे उस छापा घर में अपना नाम भेजने ही से उनके समीप भेजा जाएगा। उसका मोल महीने में दो रुपया।’
संपादक युगल किशोर शुक्ल ने उदंत मार्त्तण्ड के पहले अंक में लिखा था,
यह उदंत मार्त्तण्ड अब पहिले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेतु जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंगरेजी ओ फारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है, उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओ पढ़ने वालों को ही होता है। …देश के सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देख कर आप पढ़ ओ समझ लेंय ओपराई अपेक्षा…!
इसलिए 30 मई हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनता है। (यह जानकारी हमने माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान भोपाल के लिए विजयदत्त श्रीधर द्वारा संपादित भारतीय पत्रकारिता कोश से ली और इसके लिए हम उनके आभारी हैं।
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जनवरी सतत्तर में जिस दिन इंदिरा गांधी ने आम चुनाव की घोषणा करवायी, हम पटने में जेपी के पास थे। रास्ते में कोई दुर्घटना हुई होगी, इसलिए हमारी रेलगाड़ी लखनऊ से चक्कर लगाती हुई आयी। दिल्ली गांधी शांति प्रतिष्ठान में घर पहुंचे ही थे कि रामनाथ गोयनका अपनी फियट गाड़ी चलाते हुए आये। वे बड़े उत्साह, उत्तेजना और उतावली में थे। चाहते थे कि हम तत्काल उनके साथ एक्सप्रेस चलें और चुनाव को खूब अच्छी तरह से कवर करने की योजना बनाएं और काम में लग जाएं।
तब सेंसरशिप के कारण अखबारों में लोगों के हाल और वे क्या महसूस कर रहे हैं, यह छपता तो था नहीं। दूरदर्शन और आकाशवाणी थे, पर वे तो सरकार के सीधे कब्जे में थे। चुनाव करवा रही हैं तो इंदिरा गांधी को छूट या ढील तो देनी ही पड़ेगी, नहीं तो दुनिया इसे खुला, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं मानेगी। अपने इमरजंसी राज को लोकतांत्रिक वैधता, मान्यता और स्वीकृति दिलाने के लिए ही तो वे चुनाव करवा रही थीं।
परिस्थिति की इस ज़रूरत का उपयोग हमने अपने कवरेज में करने का तय किया। दिल्ली से दूर अलग-अलग भाषाओं के अखबार न सिर्फ सरकारी शिकंजे से दूर थे, वे अपने लोगों के नजदीक भी थे। लोगों में खदबदा रहा आक्रोश और परिवर्तन भाषाई अखबारों में प्रकट होना ही था, क्योंकि अपनी भाषा में राजनीतिक परिवर्तन जितना सीधा और सच्चा निकल कर आता है, अंग्रेजी और तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों में नहीं आता। इसलिए हमने तय किया कि भारतीय भाषाओं के सभी अखबार सबेरे उनके प्रकाशन केंद्रों में खरीदवाएंगे और उन केंद्रों से जो पहली उड़ानें दिल्ली आती हैं उनसे मंगवा लेंगे। एक्सप्रेस गेस्ट हाउस में जो बड़ा हॉल था वहां ये सब अखबार इकट्ठे किए जाएंगे। दिल्ली में अलग-अलग राज्यों के जो भवन हैं और भारतीय भाषाओं के केंद्र हैं, उनमें से भारतीय भाषाओं के जानकारों को बुलाएंगे। उन्हें उनकी भाषाओं के अखबार देंगे और अनुरोध करेंगे कि हिंदी या अंग्रेजी में उनके चुनाव कवरेज का सार लिख कर दे दें।
हमने यह इंतजाम किया और कोई दो महीने तक भारतीय भाषाओं के अखबारों के चुनाव कवरेज का सार निकालने और फिर उन रिपोर्टों के आधार पर एक्सप्रेस में छापने के लिए खबरें विश्लेषण फीचर, लेख आदि तैयार किये। यह न सिर्फ सीधी और प्रामाणिक जानकारी थी, इसमें इतनी सच्चाई थी कि सतत्तर के उस ऐतिहासिक और युगांतरकारी चुनाव के कवरेज के कारण एक्सप्रेस जनता का सबसे विश्वसनीय और प्यारा अखबार हो गया। तब लोगों में जनता पार्टी और गठबंधन की ऐसी जबरदस्त लहर थी कि लोग एक्सप्रेस को जनता एक्सप्रेस कहते थे। सर्क्‍यूलेशन के आंकड़े भी दे सकता हूं क्योंकि वे मुझे अब भी याद हैं। लेकिन लोगों के मन पर असर के नाते- अखबार की बिक्री के आंकड़े ज्यादा कुछ नहीं बताते। अपने देश में एक अखबार लेता है और कई लोग उसे पढ़ते हैं और उनसे भी कई गुना ज्यादा लोग उस पर बात करते हैं। इस तरह जो माहौल बनता है वह लोगों का मन बनाने में मददगार होता है।
भारतीय भाषाओं के कवरेज के आधार पर तैयार की गई हमारी चुनाव सामग्री, जनता में जो सचमुच हो रहा था, उसकी सच्ची तस्वीर पेश करती थी। तब अखबारों पर से इमरजंसी और सेंसरशिप का खौफ उतरा नहीं था और देश भर से जो खबरें आ रही थीं, वे सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान के खिलाफ जा रही थीं। उन्हें छापने में अख़बार झिझकते थे और सावधानी बरतने के लिए खबरों और अपने कवरेज को संतुलित करने की कोशिश करते थे। एक्सप्रेस का कवरेज आखिर चुनाव नतीजे के सबसे करीब निकला। न सिर्फ इंदिरा गांधी और संजय गांधी खुद हार गये, इमरजेंसी की ज्यादतियों में जिन-जिन नेताओं ने इनका साथ दिया था, जनता ने उन्हें चुन-चुन कर हराया। जिनने इमरजेंसी को भुगता और उसका विरोध किया था, वे सभी मजे में चुनाव जीत कर आये। ऐसी एक्सप्रेस की विश्वसनीयता थी कि नयी दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर चुनाव नतीजे दिखाने वाले बोर्ड तो सभी ने लगाये थे, लेकिन सबसे ज्यादा लोग एक्सप्रेस का बोर्ड देखने जमा होते और तालियों और जयकारों से ख़बर का अभिवादन करते।
तब के एक्सप्रेस के चुनाव कवरेज को यह विश्वसनीयता भारतीय भाषाओं- खास कर हिंदी के क्षेत्रीय अखबारों के कवरेज पर भरोसा करने के कारण मिली थी। सबसे बड़े और ज़बरदस्त परिवर्तन हिंदी इलाके में हुए थे। कलकत्ते से अमृतसर तक कांग्रेस को कुल जमा एक सीट मिली थी। इस परिवर्तन को हिंदी इलाके के तब के छोटे क्षेत्रीय अखबारों ने बखूबी पकड़ा और उजागर किया था। सच पूछिए तो भारतीय भाषाओं के, खास कर हिंदी के अखबारों ने तभी करवट ली। वे अपने पारंपरिक शिकंजों और ढांचों से बाहर निकले और आज के बड़े अखबार बने हैं। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता में यह क्रांति सतत्तर के चुनाव से ही आयी थी। भारतीय लोकतंत्र के भारतीयकरण में इन अखबारों की भूमिका सचमुच गजब की है।
लेकिन आज हिंदी पत्रकारिता दिवस पर उस समय और भूमिका को मैं बड़े दुख और अफ़सोस के साथ याद कर रहा हूं। अप्रैल और मई में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान हिंदी के हर राज्य में जाना हुआ और आदतन हर अख़बार को मैंने उसी विश्वास और भरोसे से पढ़ने को उठाया जो अपनी भाषा के अखबारों पर मेरी आदत में आ गया है। आखिर मैं भी ऐसे ही एक अखबार का बेटा हूं और उस पर भरोसा न करना मुझे अपनी ही उत्पत्ति और जीवन में अविश्वास करना लगता है। लेकिन सचाई है और इसे मैंने पत्रकारों, संपादकों, मालिकों, पाठकों, उम्मीदवारों और उनकी पार्टी के नेताओं से पूछ-पूछ कर पुष्ट किया है कि लगभग सभी अख़बारों का चुनाव कवरेज खुद का किया प्रामाणिक रूप से अपना नहीं था। इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़ कर हर अखबार ने चुनाव कवरेज का अपना पैकेज बनाया था। हर उम्मीदवार को वह बेचा गया और जिसने जितना पैसा दिया, उसके मुताबिक उसी की दी गयी खबरें मय गलतियों के छापी गयीं। फोटू भी उन्हीं के दिये छपे। इंटरव्यू, जनसंपर्क, सभा, रैली, समर्थन, अपीलें सभी पैसे लेकर छापी गयीं।
चुनाव के इस कवरेज में किसी ने नहीं लिखा कि यह पैसे ले कर विज्ञापनों को ख़बरों की तरह छापा जा रहा है। बल्कि पूरी कोशिश की गयी कि वे बिलकुल ख़बरें लगें और अखबार के अपने संवाददाताओं, पत्रकारों और लेखकों को खोजबीन और पड़ताल करके बनायी गयी लगें। मजा यह है कि पाठकों के साथ विश्वासघात करने का यह धंधा- अखबार में काम कर रहे सभी लोगों की जानकारी में किया गया है। इसे करने वाले लोगों को उनके काम के मुताबिक कमीशन दिया गया। इस धंधे में लिखत-पढ़त कहीं नहीं की गयी। देने वाले उम्मीदवार इसे अपने चुनाव खर्च में डालना नहीं चाहते थे, इसलिए उनने काला पैसा दिया। अखबारों ने यह काला पैसा न सिर्फ लिया, बल्कि कई अखबारों और पत्रकारों ने बाकायदा वसूल किया। सब जानते हैं कि अपने देश में चुनाव काले पैसों से लड़ा जाता है। लेकिन अख़बार और उनका चुनाव कवरेज भी इसी काले धन से होता है, यह इस बार व्यापक रूप से माना गया। अखबारों ने पाठकों को नहीं बताया कि वे खबरों के रूप में विज्ञापन छाप कर उनके साथ विश्वासघात कर रहे हैं और वे भी काले पैसे के धंधे में शामिल काली खबरें छाप रहे हैं। कोई विश्वास करेगा कि अखबार अब भ्रष्टाचार की निगरानी करके उसका भंडाफोड़ कर सकते हैं?इसलिए लोगों ने पढ़ा कि एक पेज पर तीनों चारों उम्मीदवार जीत रहे हैं क्योंकि उन सब ने पैकेज लिये थे और वे सब जीतने का दावा करके उसकी खबर छपवा रहे थे। जिसकी खबर नहीं छपी उसने पैकेज नहीं लिया था। जिसके खिलाफ़ ख़बर छपी उसे उसके विरोधी उम्मीदवार ने पैसे देकर छपवाया था। जीतने वाले आधा दर्जन उम्मीदवारों ने मुझसे कहा कि कई बार उनके मन में आया कि वे चुनाव अख़बार या अख़बारों के खिलाफ़ लड़ लें। लखनऊ से जीतने वाले लालजी टंडन ने तो प्रेस कांफ्रेंस करके बीच चुनाव में बता दिया था कि फलां अख़बार फलां प्रतिद्वंद्वी से पैसा लेकर उनके खिलाफ़ क्या कर रहा है। अख़बारों की ख़बरों की जगह पवित्र मानी जाती है क्योंकि पाठक उन पर भरोसा करते हैं। अखबारों ने यह जगह काले पैसों में बेच कर उनका विश्वास तोड़ा और अपनी विश्वसनीयता गंवायी। इस काले धंधे की न उन्हें लाज है, न चिंता कि उनने पत्रकारिता को सस्ते में नीलाम कर दिया है। अब हर लोकतंत्र में चुनाव ऐसा अवसर होता है, जब मीडिया की भूमिका कसौटी पर होती है। पाठक ही नहीं, पार्टियां और उनके उम्मीदवार भी अपेक्षा करते हैं कि अख़बार सच्ची और प्रामाणिक खबरें देंगे और देश को वोट देने का फै़सला करने में मदद करेंगे। यह पत्रकारिता का धर्म और ज़‍िम्मेदारी है। लोकतंत्र स्वतंत्र प्रेस के बिना नहीं चल सकता और स्वतंत्र प्रेस ही लोगों के हित और लोकतंत्र की रक्षक होती है। अमेरिका जैसे खुले पूंजीवादी लोकतंत्र में भी प्रेस की भूमिका राज्य के डर और पूंजी के लालच से स्वतंत्र अपना नीर क्षीर विवेक का काम करना है। भारत में तो प्रेस की, खासकर भाषाई प्रेस की भूमिका और भी उदात्त और बलिदानी रही है। वह आज़ादी के आंदोलन और फिर राष्ट्र और लोकतंत्र के निर्माण की भागीदार और गवाह रही है और मुनाफा कमाने की इच्छा से बदल कर प्रदूषित नहीं हो सकती। ज़रा सोचिए कि इस लोकसभा चुनाव में हमारी प्रेस ने उसमें हमारे विश्वास और लोकतंत्र का क्या किया है?
प्रेस की स्वतंत्रता को ख़तरा सिर्फ राज्य के दमनकारी क़दमों और कानून-नियमों से ही नहीं होता। ऐसे ख़तरे से भारतीय प्रेस इमरजंसी और सेंसरशिप से निपटी है और अपनी स्वतंत्रता के प्रति बहुत सचेत और संवेदनशील है। लेकिन इस चुनाव ने बताया कि आज के भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को राज्य से उतना खतरा नहीं है जितना पूंजी और मालिकों के लालच, अनैतिकता और भ्रष्टाचार से है। चुनाव में लड़ने वाले हर उम्मीदवार की तरह राजनेता पसंद करेगा कि अखबार पैसा लें और वही छापें जो वह चाहता है कि अख़बार छापें। तब तो अख़बार पैसे वाले राजनेता के गुलाम हो जाएंगे और राजनेता पैसे वालों के। तब क्या हमारा लोकतंत्र जनता के वोटों पर चलने वाला जनता का तंत्र होगा? क्या हमारी प्रेस ही हमारे लोकतंत्र को नष्ट करने में भागीदार होगी? क्या हमारी प्रेस ही काले धन के भ्रष्टाचार की वाहक हो जाएगी?
अगर आप सच्चे पाठक हैं तो आपके जागने का समय आ गया है।

साभार: जनसत्ता, 30 मई 2009

शुक्रवार, 29 मई 2009

पंकज रामेंदू की दो कविताएँ



काश ऐसा होता !


काश ऐसा होता
कि जिंदगी की उलझनें,
महबूबा की जुल्फों की तरह होती,
जिनमें जब प्रेमी अपने
बेबस, झिझकते हुए हाथों को डालता है
तो वो खुद-ब-खुद
सुलझने को राज़ी हो जाती हैं,
औऱ ये उलझन
एक अजीब सा आंनंद देती है
एक ऐसी उलझन,
जिसे बार-बार सुलझाने का मन करता

काश ऐसा होता !
कि जिंदगी की उलझनें,
पंतग के मांजे की तरह होतीं,
जिसके दोनों सिरों को पकड़
नादान बच्चा भी उन्हें सुलझा लेता है,
और वो उलझने,
उस मासूम बच्चे के इशारों पर ,
ऐसे खुल जाती हैं
जैसे हवा के झोंके से,
खिड़की का पल्ला खुल जाता है।

काश ऐसा होता !
कि वक्त रूठता तो इस तरह
जैसे कोई बच्चा अपनी मां से रूठ जाता है,
जिसके रूठ कर बात ना करने में भी,
एक अनोखा सा आनंद आता है,
जिसे मनाने की जद्दोज़हद
हमें भाव-विभोर कर देती है
जिसका रुठना हमें मनोरंजित करता,
काश ऐसा होता !

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एक सवाल

हर बार सोचता हूं कि

जिंदगी जब एक रूपया हो जायेगी,

तो बारह आने खर्च कर डालूँगा

औऱ चाराने बचा लूंगा,

कभी ज़रूरत पड़े,तो

इन चारानों से बारानों का मज़ा ले सकूं,

लेकिन जब भी वक्त की मुट्ठी खुलती है

तो हथेली पर चाराने ही नज़र आते हैं

पूरी जिंदगी चाराने को बाराने बनाने में

होम हो जाती है,

कई बार लगता है कि जब ये रुपया हो जायेगी

तो क्या जिंदगी, जिंदगी रह जाएगी ?

बुधवार, 20 मई 2009

भरोसे की कीमत पर..




पत्रकारिता के क्षेत्र में राजेश कटियार की धमक और दखल नया नहीं है, मीडिया को अक्सर आईना दिखाने वाले राजेश जी का यह लेख कुछ दिन पहले जनसत्ता में छपा है। मीडिया की मंडी में बिक रहे और सूचना के अधिकार का अपहरण कर रहे अखबारों और चैनलों की हालात को उन्होने एक त्रासदी के रुप में बयान किया और चेताया भी है........



सूचना क्रांति के दौर में भी सही खबर का अभाव किसी त्रासदी से कम नही है। ताजा लोकसभा चुनावों में इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। एक दशक पहले जब आज की तरह सूचना क्रांति का बोलबाला नहीं था तब अखबारों पर भरोसा था और अखबारों का खबर पर भरोसा था। अनेक स्थानों पर खबर की रफ्तार सुस्त थी। लेकिन देर से ही सही जानकारी सटीक मिलती थी। तब चुनावी विश्लेषणों से काफी हद तक यह संकेत मिल जाता था कि चुनावी हवा का रूख किस दिशा में है। चुनाव नतीजों के बाद अधिकतर अखबारों की खबर होती थी कि अनुमान के मुताबिक ही नतीजे मतदान पेटियों से निकले। अखबारों का अपना आकलन, सपाट रिपोर्टिंग और सपाट नतीजे। राज्यों के चुनावों में भी कमोवेश ऐसा ही आकलन होता था।

लेकिन अब ऐसा नहीं हैं। मतपेटियों का स्थान इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन ने लिया है। वहीं प्रचार का काम पोस्टर, दीवान लेखन व ध्वनि प्रचार के स्थान पर अखबारों ने संभाल लिया है। लेकिन प्रचार के इस तरीके के तहत अखबारों में चुनावी खबरों ने विज्ञापन का रूप ले लिया है। उत्तर प्रदेश में चुनावी जायजा लेते हुए राज्य के एक प्रमुख अखबार को पढ़ते हुए उसकी एक खबर पर नजर पड़ी कि ‘मीडिया के घोड़े भी चुनावी मैदान में’। यह खबर चौंकाने वाली थी, इसलिए उसे ध्यान से पढ़ा। उसका सारांश था कि कुछ अखबारों ने चुनावी समर में अपनी बोली लगा ली है। लोकतंत्र के लिहाज से देश के सबसे धनी इस राज्य के बड़े अखबार घराने भी बोली लगाने वालों में हैं। यह कोई नहीं बल्कि राज्य का ही तीसरा अखबार बता रहा है। चुनावी बिगुल बजते ही इन अखबारों ने बाकायदा अपना पैकेज प्रिंट कर हरेक पार्टी के उम्मीदवारों या उनके प्रबंधकों से संपर्क साधा। एक अखबार की चुनावी नीति है कि वह तय पैकेज में उम्मीदवार की हरेक खबर को विज्ञापन रेट पर छापेगा। जिससे उसकी बात नहीं बनी, पूरे चुनाव में उसकी एक भी खबर नहीं छपी। उसके प्रचार में कोई राष्ट्रीय नेता गया तो संबंधित खबर अंदर कहीं सिंगल कालम में देकर अपना फर्ज अदा कर लिया। दूसरे अखबार का एक मुश्त रकम पर प्रचार के दरम्यान दो टेबलायड, विज्ञापन के साथ प्रमुख खबरों का पैकेज था। दरअसल, उम्मीदवार इस गुमान में रहते हैं कि मीडिया ही हवा बनाता है, उन्होंने सौदा कर लिया। उनकी पार्टियां गौड़ हैं। जो सौदा नहीं करते, वह सार्वजनिक रूप से अखबारों पर बिकने के आरोप लगा रहे हैं।

दिलचस्प है कि यही अखबार में अपने अखबार में चुनाव में मतदान के लिए नियमित जन जागरण अभियान भी चला रहे हैं। उनका यह प्रयास शायद यह बताने के लिए है कि हमारे पास वोट डलवाने की की ताकत है। उसकी कीमत है। लेकिन यह इतनी ज्यादा है कि हर उम्मीदवार दांव नहीं लगा सकता। इसलिए कई उम्मीदवारों ने इस समस्या पर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया। कुछ ने प्रेस काउंसिल में शिकायत दर्ज कराई। कई ने अपनी चुनावी सभाओं में अखबारों पर बिकने का आरोप मढ़ा। लेकिन अनुभव में यही आया कि कोई संस्था इस पर पहल नहीं कर पाई। प्रचार के बदले तरीके में अखबारों को अपनी भूमिका समझनी चाहिए। उनके विज्ञापन लेने पर कोई मनाही नहीं है। लेकिन विज्ञापन को विज्ञापन की तरह होना चाहिए। खबर विज्ञापन के रेट पर छपे और नीचे कहीं किसी ऐजेंसी का जिक्र न हो तब यह भ्रम होता है कि वह अखबार की अपनी खबर है। लेकिन वह है विज्ञापन जिसका अखबार ने रेट तय किया है। उम्मीदवार की तरफ जो खबर आती है, उसे उसी रूप में विज्ञापन रेट पर छाप दिया जाता है। दरअसल, यह उन पाठकों के प्रति बेईमानी है जो अखबार खरीदते हैं। खबरों को वह सच मानते हैं। उन पर धारणा-अवधारणा बनकर चर्चा होती है। लोकत्रंत के लिए यह बेहद जरूरी है। लेकिन जब खबरों को पेश करने का तरीके से मालूम ही न पड़े कि वह खबर है या विज्ञापन, तब यह एक गंभीर सवाल है। अपनी बोली लगाकर अखबारों ने खबर और विज्ञापन का फर्क मिटा दिया है। ध्यान रखने की बात है कि अखबार एक दस्तावेज होता है जिसे कितने ही पाठक सहज कर रखते हैं। इसीलिए यह माध्यम खबरिया चैनलों से सशक्त है। चैनलों की खबरों की तुलना में अखबार की खबरों की उम्र कहीं ज्यादा होती है।

ध्यान रखना चाहिए कि मीडिया के प्रचार से सरकार बनती और बिगड़ती नहीं है। ऐसा होता था तो पिछले लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में राजग का शासन होना चाहिए था। मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री नहीं बनती। मध्य प्रदेश में छह साल पहले दिग्विजय सिंह की सरकार नहीं उखड़ती। खबरों के अनुमान से उलटा हुआ। मायावती को उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत मिला। उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में हरेक अखबार का दावा था कि लटकी विधानसभा होगी। चुनाव के एन वक्त एक गंभीर चैनल का सर्वे था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा नंबर एक पर है। लेकिन यह सर्वे एक सोच-समझा खेल था। इसका मकसद था कि ऐसे सर्वे से उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों को वोट उस दल को थोक भाव में मिल जाएगा जिसने उसके सहारे राज्य की राजनीति में पैर पसार रखे हैं। इतना खेल होने के बाद भी मायावती ने बिना किसी प्रचार के अपने दम पर राज्य की राजनीति की धुरी बन गईं। चुनाव के नतीजों ने सबकी पोल खोल दी। दरअसल समाचार माध्यमों को जमीन सूंघने की फुर्सत नहीं है। इसलिए प्रचार के मामले में संबंधित संस्थाओं को गंभीर होना चाहिए। साथ ही पार्टियों को ध्यान रखना चाहिए कि उसने अपनी खबर खरीद तो नहीं ली हैं। चुनाव लोकतंत्र का पहिया है। इसकी धुरी में विज्ञापन के रेट पर खबरों का तेल नहीं डाला जाना चाहिए। ऐसा होगा तो नतीजे अनुमान के मुताबिक नहीं निकलेंगे और जगहंसाई अलग होगी।