
काश ऐसा होता !
काश ऐसा होता
कि जिंदगी की उलझनें,
महबूबा की जुल्फों की तरह होती,
जिनमें जब प्रेमी अपने
बेबस, झिझकते हुए हाथों को डालता है
तो वो खुद-ब-खुद
सुलझने को राज़ी हो जाती हैं,
औऱ ये उलझन
एक अजीब सा आंनंद देती है
एक ऐसी उलझन,
जिसे बार-बार सुलझाने का मन करता
काश ऐसा होता !
कि जिंदगी की उलझनें,
पंतग के मांजे की तरह होतीं,
जिसके दोनों सिरों को पकड़
नादान बच्चा भी उन्हें सुलझा लेता है,
और वो उलझने,
उस मासूम बच्चे के इशारों पर ,
ऐसे खुल जाती हैं
जैसे हवा के झोंके से,
खिड़की का पल्ला खुल जाता है।
काश ऐसा होता !
कि वक्त रूठता तो इस तरह
जैसे कोई बच्चा अपनी मां से रूठ जाता है,
जिसके रूठ कर बात ना करने में भी,
एक अनोखा सा आनंद आता है,
जिसे मनाने की जद्दोज़हद
हमें भाव-विभोर कर देती है
जिसका रुठना हमें मनोरंजित करता,
काश ऐसा होता !
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एक सवाल
हर बार सोचता हूं कि
हर बार सोचता हूं कि
जिंदगी जब एक रूपया हो जायेगी,
तो बारह आने खर्च कर डालूँगा
औऱ चाराने बचा लूंगा,
कभी ज़रूरत पड़े,तो
इन चारानों से बारानों का मज़ा ले सकूं,
लेकिन जब भी वक्त की मुट्ठी खुलती है
तो हथेली पर चाराने ही नज़र आते हैं
पूरी जिंदगी चाराने को बाराने बनाने में
होम हो जाती है,
कई बार लगता है कि जब ये रुपया हो जायेगी
तो क्या जिंदगी, जिंदगी रह जाएगी ?
बहुत सुन्दर रचनायें हैं चाराने और बाराने का सटीक लेखाजोखा है बधाइ
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