मंगलवार, 17 जून 2014

पिताजी का जाना

हम लोग उन्हे पिताजी क्यों कहते थे, पता नहीं ? यह एक सम्बोधन था जो चल पड़ा था। धीरे – धीरे श्री हरिनारायण अवस्थी हम सभी के लिए पिताजी हो गए। मैं जब उनसे पहली बार मिला , करीब आठ साल पहले तब वे 80 बंसत पार कर चुके थे। कान में सुनने की मशीन लगी थी, फिर भी उनसे बात करने के लिए जोर से बोलना पड़ता था। ठहाका लगाकर वे कहते , मैं फायदे में ही रहता हूं, सुनना कम पड़ता है और जितना मर्जी बोलता रहता हूं। पिताजी कोई साहित्यकार नहीं थे , दार्शनिक भी नहीं, समाज सेवक या आंदोलनकारी तो बिल्कुल भी नहीं । ऐसा कोई भी संबोधन उन्हे सीमित करता था। वे सिर्फ पिताजी थे। हर दौर में समाज को पिताजी जैसे बुजुर्ग की जरूरत होती है जिनके पास कोई पद नहीं होता , लेकिन उनका होना ही समाज के होने का आधार होता है। हलांकि वे उत्तर प्रदेश सरकार में पीसीएस अधिकारी रहे थे। इस रूतबे का गुमान उन्हे छू भी नहीं पाता था। अपने अफसरी के दिनों को कुछ यूं बयां करते, ‘नियम लागू करवाने वाले को कविताएं जरुर पड़नी चाहिए, तभी वह पहले और आखिरी आदमी को समझ सकता है।‘ साहित्य के बारे में कहते कि पहली बार पढ़ने पर किसी किताब से सिर्फ परिचय हो पाता है , समझ आती है दूसरी बार पढ़ने पर और तीसरी बार पढ़ने पर ही उससे दोस्ती हो पाती है, इसके बाद आप पर है कि दोस्ती कितनी घनिष्ठ करना चाहते हो। पिताजी के पास साहित्य को देखने की अलग ही नजर थी। जिस भी किताब को पढ़ते , उसके हर पन्ने पर अपना मत लिखते जाते। उसके बाद लेखक को पोस्टकार्ड लिखते। धन्य हो जाते होंगे वे लेखक जिन्हे इतने सुधी पाठक का पत्र मिलता होगा। पिताजी ने मोबाइल कभी रखा नहीं , कहते इससे खुशबू का संचार नहीं हो सकता, वह तो चिट्ठी से ही संभव है। भावनाएं एसएमएस से व्यक्त नहीं हो सकती। हमारी हमेशा कोशिश रही कि वे यह ना जान पाए कि अब लोग शादी का निमंत्रण भी फेसबुक से भेज देते हैं। एक ही मोहल्ले में रहते हुए जब तब उनके पोस्टकार्ड मुझे बताते रहे कि वे कितने सक्रिय है और मैं कितना निष्क्रिय। एक दिन मुलाकात के दौरान उन्होने पूछा, आजकल क्या पढ़ रहे हो? मेरे यह कहने पर कि शेखर एक जीवनी को समझने की कोशिश कर रहा हूं। कुछ देर चुप्पी के बाद उन्होने कहा, ‘ अब लगता है कि वह साहित्य नहीं हैं, भारतीयता को और उसके दर्शन को समझना है तो उपनिषदों को पढ़ना चाहिए। मुझे लगा शायद उम्र का तकाजा है जो पिताजी ऐसी बाते कर रहे है। मुझे असमंजस में देख उन्होने शेखर एक जीवनी का एक कथन सुनाया, ‘ मां तुम मर क्यों नहीं जाती । ’फिर बोले, अब बताओं यह किस समाज का आईना दिखाता साहित्य है। वास्तव में पिताजी को दुख इस बात का था कि उन्होने काफी देर से उपनिषदों की तरफ ध्यान दिया, वे जानते थे कि उनके पास ज्यादा समय नहीं है। उनके भीतर हमेशा से जीने की नहीं, जानने की ललक दिखी। विश्व पुस्तक मेले में वे रोज जाना चाहते लेकिन समस्या यह होती कि उन्हे रोज कैसे लेकर जाया जाए, उनका स्वास्थ्य इसकी अनुमति नहीं देता था। पिताजी जब भी मिलते अपनी किताबों का तकादा जरूर करते, मेरी वह किताब वापस करो, अब इस उम्र में मैं फिर से पढ़कर निशान नहीं लगा सकता। तुलसीदास की मानस उनकी पसंदीदा कृति थी, पति - पत्नी के आपसी संबंध को वे अक्सर सेवक स्वामी सखा सिय पी के, गाकर समझाते और इन लाइनों को भी हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा से जोड़ कर कहते, पति कुछ भी कर ले पत्नी के बराबर त्याग नहीं कर सकता। मानस के मर्म को बताते हुए वे सवाल उठाते बंदर और भालू कोई और नहीं आदिवासी ही थे शायद सर्वाधिक पिछड़े आदिवासी। इन आदिवासियों की मदद के बिना एक क्षत्रिय राजकुमार एक ताकतवर ब्राह्मण राजा को नहीं हरा सकता था, अच्छा होता तुलसीदास इस समाज को यह समझा पाते कि राम कथा में पुरूषोत्तम की मर्यादा को बचाए रखने का काम इन आदिवासियों ने ही किया था। आदि काल के यह वासी ही हर दौर में इस देश की रीढ़ थे। अपने अंतिम दिनों में गले में असहनीय तकलीफ के चलते उन्हे बोलने में कठिनाई थी। लेकिन बोलने बतियाने की ललक बरकरार थी। कागज पर सवाल लिखते और इशारे से बताते कि मैं सुन सकता हूं, मानो कह रहे हो अभी तो मैं जवान हूं। अशोक वाजपेयी ने शायद पिताजी को ध्यान में रखकर ही लिखा था- बच्चे एक दिन यमलोक पर धावा बोलेंगे, और छुड़ा ले आएंगे. सब पुरखों को वापस पृथ्वी पर, और फिर आंखे फाड़े विस्मय से सुनते रहेंगे, एक अनन्त कहानी सदियों तक। फ्री टॉक टाइम इस के दौर में जहां मुलाकात मयस्सर नहीं होती, इस समाज को अंदाजा ही नहीं पिताजी के जाने पर उसने क्या खोया है। उनकी पढ़ी हुई एक किताब को देख रहा था .... एक लाइन के नीचे निशान लगा हुआ था, नींद आधी मौत है और मौत पूरी नींद.. हमेशा जगाने की कोशिश करने वाले पिताजी अब गहरी नींद में हैं। वे मर नहीं सकते, उनकी मौत की सच्ची खबर जिसने दी, वो झूठा था।

सोमवार, 1 जून 2009

बंधक कलमें


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


यह आलेख २३ मई को जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था , लोकसभा चुनावों का एक अनुभव आपके साथ बांटना चाहता हूं......


भूपेश कोई तीसेक साल का है, उससे मुलाकात पिछले दिनों इलाहाबाद में एक प्रत्याशी के चुनाव प्रबंधन करने के दौरान हुई। पहली मुलाकात में भूपेश ने अपने सरल स्वाभाव और स्पष्टवादिता से ये साफ किया कि उसकी लिखी खबरों में पक्षपात देखने को नहीं मिलेगा। मन को एक राहत मिली क्योंकि उस समय मेरे फोन पर अखबारों के दफ्तर से सिर्फ धमकी भरे फोन आ रहे थे, "पैकेज ले लिजिए क्योकि चुनाव मीडिया ही जितवाता है और मीडिया ही हरवाता है, बाकि आप खुद ही समझदार है।"
इस बार के चुनाव में शब्दों की जो मंडी लगी थी, उसमें सबके अपने अपने दाम थे, इस मंडी में शब्दों को बेचने वाली तथाकथित पत्रकारों की कौम के रवैये को देखकर जितना दुख हुआ , उससे कहीं ज्यादा हैरत इस बात पर हुई कि इस हमाम में आकंठ डूबे नंगो के बीच में एक व्यक्ति भूपेश भी है जो अभी भी पत्रकारिता पर विश्वास बनाने का प्रयास कर रहा है, समाज के प्रति जिम्मेदारी का एहसास उसकी आंखों में नजर आ रहा था। मैं इलाहाबाद इस उद्देश्य से गया था कि मीडिया जिस तरह से वेश्या से भी गिरी हुई स्थिति में आकर अपना ईमान बेच रहा है ,उसमें कहीं ऐसा ना हो कि पैसों की कमी की वजह से हमारे प्रत्याशी के बारे नकारात्मक खबरे छपने लगें। इसे रोकने के लिए तथाकथित पत्रकारों को हमारे द्वारा दिए जा रहे मंहगे उपहार को लेने से भूपेश ने ना केवल दृढ़ता से मना कर दिया, उल्टे हमें सलाह दी कि हम मीडिया को तोहफे देने के बजाए गांवों में जाकर लोगो से समर्थन मांगे। भूपेश की यह ना एक तमाचे की तरह थी,यह तमाचा उन पर था जो पत्रकारों को एक दलाल से ज्यादा कुछ नहीं समझते, यह तमाचा उस व्यवस्था पर था जो मानती है कि सबकुछ मैनेज हो सकता है और उन अखबार, चैनल मालिको पर भी था, जो मानकर चलते है कि पत्रकार मुफ्तखोर होता है इसलिए उसे कम वेतन दिया जाना चाहिए, यह तमाचा उन उम्मीदवारों के मूंह पर भी था जिन्होने पैसा फेंक कर पूरे अखबार को ही खरीद लिया था और कहीं ना कहीं यह तमाचा मेरे मूंह पर भी लगा था।
इलाहाबाद में अखबार सच नहीं लिख रहे थे बल्कि सच की रचना कर रहे थे, सभी पर सच की रचना करने और संस्थान की आय बढ़ाने का दवाब था। भूपेश द्वारा लिखी जा रही खबरों से लगातार हमारा नुकसान हो रहा था, लेकिन मै जानता था कि वह सच लिख रहा है, प्रत्याशी का करीबी होने के कारण हमारी कोशिश थी कि वह हमारे पक्ष में लिखे, लेकिन ऐसा ना होने पर मेरे अंदर का पत्रकार खुद को जीवित महसूस कर रहा था। पत्रकारिता की अमरता का एहसास कराता भूपेश की खबरों का उजाला, मैं अपने अंदर महसूस कर पा रहा था।
बचपन में, मेरे गांव सिहावल में एक ही अखबार आता था, गांव में बने एक सहकारी भवन , ब्लाक में आने वाला यह अखबार दोपहर तक ही गांव तक पहूंच पाता था, चाचा और उनके दोस्त इंतजार करते रहते, सबसे पहले खबरें वे ही पढते और शाम होते होते पूरे गांव में उस अखबार की खबरें पहूंच जाती, कभी मन में यह ख्याल भी नहीं आया कि इसमें कुछ गलत लिखा भी जा सकता है, वह अखबार एकमात्र जरिया था, गांव के बाहर की दुनियां को जानने समझने का, कुल मिलाकर हमारे लिए उस अखबार का लिखा, भगवान के लिखे से कम नहीं होता था। तब से अब तक बीस साल हो गये इतने सालों में मीडिया में सच्चाई के साथ संवेदनाओं के सरोकार पूरी तरह बदल गए है, सुना है जब इंदिरा गांधी के दौर में इमरजेंसी लगी थी, उस समय कई अखबारों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोके जाने के विरोध स्वरूप अपने अखबारों के संपादकीय पृष्ठ को काला करके छापा था, आज तो अखबारों ने अपने ही मुंह पर कालिख पोत ली है और सबसे खास बात .ये है कि अपने कालेपन पर इतराते ये लोग अब इस बात पर प्रतियोगिता लगा रहे हैं कि मेरे से तेरा रंग काला कैसे ? हिन्दी पट्टी में समाज का बहुत बड़ा वर्ग पत्रकारों में भरोसे का, एक अभिभावक का चेहरा देखता है, इस आम आदमी की हालत उस बच्चे की तरह है, जिसने अभी अभी चलने की शुरूआत की है वो अपना शरीर अपने पालक को सौंप देता है, उसे ये विश्वास होता है कि अगर मैं गिरूंगा तो कोई होगा जो मुझे थाम लेगा, लेकिन वो बेचारा आज भी नहीं जानता कि उसकी ओर बढ़ने वाले विश्वास के हाथों पर तो ना जाने कब से सोने की बेडि़यां पड़ गई हैं।
कु्ल मिलाकर इस बाजार में हर चीज बिक रही थी ख़बर, संपादकीय, और ख़बर के खॉचे में विज्ञापन, या फिर आपकी जीत पक्की करने के दावें करने वाले बड़े - बड़े बयान, सब कुछ उपलब्ध था। चुनाव लड़ने वाले हर प्रत्याशी पर इस बाजार से कुछ ना कुछ खऱीदने का दवाब था।सूचना के अधिकार और उससे बढ़कर आम आदमी के विश्वास की धज्जिया उड़ाते ये अखबार बेशर्मी के साथ पैसा लेकर सभी को जीतता दिखा रहे थे। ऐसे में एक दिन भूपेश का फोन आया, बेहद भर्राई हुई आवाज में उसने कहा सर हो सके तो जो विज्ञापन आप औरो को दे वह हमें भी दे, हमारी और कोई डिमांड नहीं है, मैने सहर्ष स्वीकृति दे दी किन्तु उसकी आवाज में छिपी बेबसी का दर्द मुझे समझ में आ रहा था। उसकी बेबसी ने मुझे किसी शायर की ये पंक्तियां याद दिला दी थी कि- तुम्हारे पास सरकार है हम इसलिए चुप हैं, हमारे पास घरबार है हम इसलिए चुप हैं।
अभय मिश्र
9871765552

शनिवार, 30 मई 2009

चुनाव में बिकी प्रेस ख़तरे में है - ख़बरदार!




प्रभाष जोशी ने मीडिया मंडी के विरोध में मशाल जला ली है, इसे बुझने नहीं देना है, इस आलेख में आपातकाल के दौर का उनका अनुभव, उन मीडिया मालिकों और पत्रकारों के मूंह पर तमाचा है जो एडिटोरियल को एडवरटोरियल बनाने पर तुले है, प्रभाष जी ने आंदोलन शुरु कर दिया है लेकिन पत्रकारिता का अपहरण करने वालों ने उनके किसी भी बयान को कवरेज ना देने की साजिश की है, रोहतक हो या इंदौर, प्रभाष जी जहां भी कार्यक्रमों में शामिल हो रहे है, इक्का दुक्का अखबारों को छोड़कर कोई अखबार चर्चा तो दूर सूचना भी नहीं दे रहा, साफ है यह वहीं अखबार है जिन्होने चुनाव में अपना तो सबकूछ बेचा ही हमारे विश्वास को भी गिरवी रख दिया....



हिंदी का पहला अखबार उदंत मार्त्तण्ड कोलकाता से 30 मई, 1826 को निकलना शुरू हुआ। उसके हर अंक के अंत में लिखा रहता था,
यह उदंत मार्त्तण्ड कलकत्ते के कोल्हू टोला के अमड़ा तला की गली के 37 अंक की हवेली के मार्त्तण्ड छापा में हर सतवारे मंगलवार को शाया होता है। जिनको लेने का काम पड़े वे उस छापा घर में अपना नाम भेजने ही से उनके समीप भेजा जाएगा। उसका मोल महीने में दो रुपया।’
संपादक युगल किशोर शुक्ल ने उदंत मार्त्तण्ड के पहले अंक में लिखा था,
यह उदंत मार्त्तण्ड अब पहिले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेतु जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंगरेजी ओ फारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है, उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओ पढ़ने वालों को ही होता है। …देश के सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देख कर आप पढ़ ओ समझ लेंय ओपराई अपेक्षा…!
इसलिए 30 मई हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनता है। (यह जानकारी हमने माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान भोपाल के लिए विजयदत्त श्रीधर द्वारा संपादित भारतीय पत्रकारिता कोश से ली और इसके लिए हम उनके आभारी हैं।
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जनवरी सतत्तर में जिस दिन इंदिरा गांधी ने आम चुनाव की घोषणा करवायी, हम पटने में जेपी के पास थे। रास्ते में कोई दुर्घटना हुई होगी, इसलिए हमारी रेलगाड़ी लखनऊ से चक्कर लगाती हुई आयी। दिल्ली गांधी शांति प्रतिष्ठान में घर पहुंचे ही थे कि रामनाथ गोयनका अपनी फियट गाड़ी चलाते हुए आये। वे बड़े उत्साह, उत्तेजना और उतावली में थे। चाहते थे कि हम तत्काल उनके साथ एक्सप्रेस चलें और चुनाव को खूब अच्छी तरह से कवर करने की योजना बनाएं और काम में लग जाएं।
तब सेंसरशिप के कारण अखबारों में लोगों के हाल और वे क्या महसूस कर रहे हैं, यह छपता तो था नहीं। दूरदर्शन और आकाशवाणी थे, पर वे तो सरकार के सीधे कब्जे में थे। चुनाव करवा रही हैं तो इंदिरा गांधी को छूट या ढील तो देनी ही पड़ेगी, नहीं तो दुनिया इसे खुला, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं मानेगी। अपने इमरजंसी राज को लोकतांत्रिक वैधता, मान्यता और स्वीकृति दिलाने के लिए ही तो वे चुनाव करवा रही थीं।
परिस्थिति की इस ज़रूरत का उपयोग हमने अपने कवरेज में करने का तय किया। दिल्ली से दूर अलग-अलग भाषाओं के अखबार न सिर्फ सरकारी शिकंजे से दूर थे, वे अपने लोगों के नजदीक भी थे। लोगों में खदबदा रहा आक्रोश और परिवर्तन भाषाई अखबारों में प्रकट होना ही था, क्योंकि अपनी भाषा में राजनीतिक परिवर्तन जितना सीधा और सच्चा निकल कर आता है, अंग्रेजी और तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों में नहीं आता। इसलिए हमने तय किया कि भारतीय भाषाओं के सभी अखबार सबेरे उनके प्रकाशन केंद्रों में खरीदवाएंगे और उन केंद्रों से जो पहली उड़ानें दिल्ली आती हैं उनसे मंगवा लेंगे। एक्सप्रेस गेस्ट हाउस में जो बड़ा हॉल था वहां ये सब अखबार इकट्ठे किए जाएंगे। दिल्ली में अलग-अलग राज्यों के जो भवन हैं और भारतीय भाषाओं के केंद्र हैं, उनमें से भारतीय भाषाओं के जानकारों को बुलाएंगे। उन्हें उनकी भाषाओं के अखबार देंगे और अनुरोध करेंगे कि हिंदी या अंग्रेजी में उनके चुनाव कवरेज का सार लिख कर दे दें।
हमने यह इंतजाम किया और कोई दो महीने तक भारतीय भाषाओं के अखबारों के चुनाव कवरेज का सार निकालने और फिर उन रिपोर्टों के आधार पर एक्सप्रेस में छापने के लिए खबरें विश्लेषण फीचर, लेख आदि तैयार किये। यह न सिर्फ सीधी और प्रामाणिक जानकारी थी, इसमें इतनी सच्चाई थी कि सतत्तर के उस ऐतिहासिक और युगांतरकारी चुनाव के कवरेज के कारण एक्सप्रेस जनता का सबसे विश्वसनीय और प्यारा अखबार हो गया। तब लोगों में जनता पार्टी और गठबंधन की ऐसी जबरदस्त लहर थी कि लोग एक्सप्रेस को जनता एक्सप्रेस कहते थे। सर्क्‍यूलेशन के आंकड़े भी दे सकता हूं क्योंकि वे मुझे अब भी याद हैं। लेकिन लोगों के मन पर असर के नाते- अखबार की बिक्री के आंकड़े ज्यादा कुछ नहीं बताते। अपने देश में एक अखबार लेता है और कई लोग उसे पढ़ते हैं और उनसे भी कई गुना ज्यादा लोग उस पर बात करते हैं। इस तरह जो माहौल बनता है वह लोगों का मन बनाने में मददगार होता है।
भारतीय भाषाओं के कवरेज के आधार पर तैयार की गई हमारी चुनाव सामग्री, जनता में जो सचमुच हो रहा था, उसकी सच्ची तस्वीर पेश करती थी। तब अखबारों पर से इमरजंसी और सेंसरशिप का खौफ उतरा नहीं था और देश भर से जो खबरें आ रही थीं, वे सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान के खिलाफ जा रही थीं। उन्हें छापने में अख़बार झिझकते थे और सावधानी बरतने के लिए खबरों और अपने कवरेज को संतुलित करने की कोशिश करते थे। एक्सप्रेस का कवरेज आखिर चुनाव नतीजे के सबसे करीब निकला। न सिर्फ इंदिरा गांधी और संजय गांधी खुद हार गये, इमरजेंसी की ज्यादतियों में जिन-जिन नेताओं ने इनका साथ दिया था, जनता ने उन्हें चुन-चुन कर हराया। जिनने इमरजेंसी को भुगता और उसका विरोध किया था, वे सभी मजे में चुनाव जीत कर आये। ऐसी एक्सप्रेस की विश्वसनीयता थी कि नयी दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर चुनाव नतीजे दिखाने वाले बोर्ड तो सभी ने लगाये थे, लेकिन सबसे ज्यादा लोग एक्सप्रेस का बोर्ड देखने जमा होते और तालियों और जयकारों से ख़बर का अभिवादन करते।
तब के एक्सप्रेस के चुनाव कवरेज को यह विश्वसनीयता भारतीय भाषाओं- खास कर हिंदी के क्षेत्रीय अखबारों के कवरेज पर भरोसा करने के कारण मिली थी। सबसे बड़े और ज़बरदस्त परिवर्तन हिंदी इलाके में हुए थे। कलकत्ते से अमृतसर तक कांग्रेस को कुल जमा एक सीट मिली थी। इस परिवर्तन को हिंदी इलाके के तब के छोटे क्षेत्रीय अखबारों ने बखूबी पकड़ा और उजागर किया था। सच पूछिए तो भारतीय भाषाओं के, खास कर हिंदी के अखबारों ने तभी करवट ली। वे अपने पारंपरिक शिकंजों और ढांचों से बाहर निकले और आज के बड़े अखबार बने हैं। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता में यह क्रांति सतत्तर के चुनाव से ही आयी थी। भारतीय लोकतंत्र के भारतीयकरण में इन अखबारों की भूमिका सचमुच गजब की है।
लेकिन आज हिंदी पत्रकारिता दिवस पर उस समय और भूमिका को मैं बड़े दुख और अफ़सोस के साथ याद कर रहा हूं। अप्रैल और मई में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान हिंदी के हर राज्य में जाना हुआ और आदतन हर अख़बार को मैंने उसी विश्वास और भरोसे से पढ़ने को उठाया जो अपनी भाषा के अखबारों पर मेरी आदत में आ गया है। आखिर मैं भी ऐसे ही एक अखबार का बेटा हूं और उस पर भरोसा न करना मुझे अपनी ही उत्पत्ति और जीवन में अविश्वास करना लगता है। लेकिन सचाई है और इसे मैंने पत्रकारों, संपादकों, मालिकों, पाठकों, उम्मीदवारों और उनकी पार्टी के नेताओं से पूछ-पूछ कर पुष्ट किया है कि लगभग सभी अख़बारों का चुनाव कवरेज खुद का किया प्रामाणिक रूप से अपना नहीं था। इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़ कर हर अखबार ने चुनाव कवरेज का अपना पैकेज बनाया था। हर उम्मीदवार को वह बेचा गया और जिसने जितना पैसा दिया, उसके मुताबिक उसी की दी गयी खबरें मय गलतियों के छापी गयीं। फोटू भी उन्हीं के दिये छपे। इंटरव्यू, जनसंपर्क, सभा, रैली, समर्थन, अपीलें सभी पैसे लेकर छापी गयीं।
चुनाव के इस कवरेज में किसी ने नहीं लिखा कि यह पैसे ले कर विज्ञापनों को ख़बरों की तरह छापा जा रहा है। बल्कि पूरी कोशिश की गयी कि वे बिलकुल ख़बरें लगें और अखबार के अपने संवाददाताओं, पत्रकारों और लेखकों को खोजबीन और पड़ताल करके बनायी गयी लगें। मजा यह है कि पाठकों के साथ विश्वासघात करने का यह धंधा- अखबार में काम कर रहे सभी लोगों की जानकारी में किया गया है। इसे करने वाले लोगों को उनके काम के मुताबिक कमीशन दिया गया। इस धंधे में लिखत-पढ़त कहीं नहीं की गयी। देने वाले उम्मीदवार इसे अपने चुनाव खर्च में डालना नहीं चाहते थे, इसलिए उनने काला पैसा दिया। अखबारों ने यह काला पैसा न सिर्फ लिया, बल्कि कई अखबारों और पत्रकारों ने बाकायदा वसूल किया। सब जानते हैं कि अपने देश में चुनाव काले पैसों से लड़ा जाता है। लेकिन अख़बार और उनका चुनाव कवरेज भी इसी काले धन से होता है, यह इस बार व्यापक रूप से माना गया। अखबारों ने पाठकों को नहीं बताया कि वे खबरों के रूप में विज्ञापन छाप कर उनके साथ विश्वासघात कर रहे हैं और वे भी काले पैसे के धंधे में शामिल काली खबरें छाप रहे हैं। कोई विश्वास करेगा कि अखबार अब भ्रष्टाचार की निगरानी करके उसका भंडाफोड़ कर सकते हैं?इसलिए लोगों ने पढ़ा कि एक पेज पर तीनों चारों उम्मीदवार जीत रहे हैं क्योंकि उन सब ने पैकेज लिये थे और वे सब जीतने का दावा करके उसकी खबर छपवा रहे थे। जिसकी खबर नहीं छपी उसने पैकेज नहीं लिया था। जिसके खिलाफ़ ख़बर छपी उसे उसके विरोधी उम्मीदवार ने पैसे देकर छपवाया था। जीतने वाले आधा दर्जन उम्मीदवारों ने मुझसे कहा कि कई बार उनके मन में आया कि वे चुनाव अख़बार या अख़बारों के खिलाफ़ लड़ लें। लखनऊ से जीतने वाले लालजी टंडन ने तो प्रेस कांफ्रेंस करके बीच चुनाव में बता दिया था कि फलां अख़बार फलां प्रतिद्वंद्वी से पैसा लेकर उनके खिलाफ़ क्या कर रहा है। अख़बारों की ख़बरों की जगह पवित्र मानी जाती है क्योंकि पाठक उन पर भरोसा करते हैं। अखबारों ने यह जगह काले पैसों में बेच कर उनका विश्वास तोड़ा और अपनी विश्वसनीयता गंवायी। इस काले धंधे की न उन्हें लाज है, न चिंता कि उनने पत्रकारिता को सस्ते में नीलाम कर दिया है। अब हर लोकतंत्र में चुनाव ऐसा अवसर होता है, जब मीडिया की भूमिका कसौटी पर होती है। पाठक ही नहीं, पार्टियां और उनके उम्मीदवार भी अपेक्षा करते हैं कि अख़बार सच्ची और प्रामाणिक खबरें देंगे और देश को वोट देने का फै़सला करने में मदद करेंगे। यह पत्रकारिता का धर्म और ज़‍िम्मेदारी है। लोकतंत्र स्वतंत्र प्रेस के बिना नहीं चल सकता और स्वतंत्र प्रेस ही लोगों के हित और लोकतंत्र की रक्षक होती है। अमेरिका जैसे खुले पूंजीवादी लोकतंत्र में भी प्रेस की भूमिका राज्य के डर और पूंजी के लालच से स्वतंत्र अपना नीर क्षीर विवेक का काम करना है। भारत में तो प्रेस की, खासकर भाषाई प्रेस की भूमिका और भी उदात्त और बलिदानी रही है। वह आज़ादी के आंदोलन और फिर राष्ट्र और लोकतंत्र के निर्माण की भागीदार और गवाह रही है और मुनाफा कमाने की इच्छा से बदल कर प्रदूषित नहीं हो सकती। ज़रा सोचिए कि इस लोकसभा चुनाव में हमारी प्रेस ने उसमें हमारे विश्वास और लोकतंत्र का क्या किया है?
प्रेस की स्वतंत्रता को ख़तरा सिर्फ राज्य के दमनकारी क़दमों और कानून-नियमों से ही नहीं होता। ऐसे ख़तरे से भारतीय प्रेस इमरजंसी और सेंसरशिप से निपटी है और अपनी स्वतंत्रता के प्रति बहुत सचेत और संवेदनशील है। लेकिन इस चुनाव ने बताया कि आज के भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को राज्य से उतना खतरा नहीं है जितना पूंजी और मालिकों के लालच, अनैतिकता और भ्रष्टाचार से है। चुनाव में लड़ने वाले हर उम्मीदवार की तरह राजनेता पसंद करेगा कि अखबार पैसा लें और वही छापें जो वह चाहता है कि अख़बार छापें। तब तो अख़बार पैसे वाले राजनेता के गुलाम हो जाएंगे और राजनेता पैसे वालों के। तब क्या हमारा लोकतंत्र जनता के वोटों पर चलने वाला जनता का तंत्र होगा? क्या हमारी प्रेस ही हमारे लोकतंत्र को नष्ट करने में भागीदार होगी? क्या हमारी प्रेस ही काले धन के भ्रष्टाचार की वाहक हो जाएगी?
अगर आप सच्चे पाठक हैं तो आपके जागने का समय आ गया है।

साभार: जनसत्ता, 30 मई 2009

शुक्रवार, 29 मई 2009

पंकज रामेंदू की दो कविताएँ



काश ऐसा होता !


काश ऐसा होता
कि जिंदगी की उलझनें,
महबूबा की जुल्फों की तरह होती,
जिनमें जब प्रेमी अपने
बेबस, झिझकते हुए हाथों को डालता है
तो वो खुद-ब-खुद
सुलझने को राज़ी हो जाती हैं,
औऱ ये उलझन
एक अजीब सा आंनंद देती है
एक ऐसी उलझन,
जिसे बार-बार सुलझाने का मन करता

काश ऐसा होता !
कि जिंदगी की उलझनें,
पंतग के मांजे की तरह होतीं,
जिसके दोनों सिरों को पकड़
नादान बच्चा भी उन्हें सुलझा लेता है,
और वो उलझने,
उस मासूम बच्चे के इशारों पर ,
ऐसे खुल जाती हैं
जैसे हवा के झोंके से,
खिड़की का पल्ला खुल जाता है।

काश ऐसा होता !
कि वक्त रूठता तो इस तरह
जैसे कोई बच्चा अपनी मां से रूठ जाता है,
जिसके रूठ कर बात ना करने में भी,
एक अनोखा सा आनंद आता है,
जिसे मनाने की जद्दोज़हद
हमें भाव-विभोर कर देती है
जिसका रुठना हमें मनोरंजित करता,
काश ऐसा होता !

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एक सवाल

हर बार सोचता हूं कि

जिंदगी जब एक रूपया हो जायेगी,

तो बारह आने खर्च कर डालूँगा

औऱ चाराने बचा लूंगा,

कभी ज़रूरत पड़े,तो

इन चारानों से बारानों का मज़ा ले सकूं,

लेकिन जब भी वक्त की मुट्ठी खुलती है

तो हथेली पर चाराने ही नज़र आते हैं

पूरी जिंदगी चाराने को बाराने बनाने में

होम हो जाती है,

कई बार लगता है कि जब ये रुपया हो जायेगी

तो क्या जिंदगी, जिंदगी रह जाएगी ?

बुधवार, 20 मई 2009

भरोसे की कीमत पर..




पत्रकारिता के क्षेत्र में राजेश कटियार की धमक और दखल नया नहीं है, मीडिया को अक्सर आईना दिखाने वाले राजेश जी का यह लेख कुछ दिन पहले जनसत्ता में छपा है। मीडिया की मंडी में बिक रहे और सूचना के अधिकार का अपहरण कर रहे अखबारों और चैनलों की हालात को उन्होने एक त्रासदी के रुप में बयान किया और चेताया भी है........



सूचना क्रांति के दौर में भी सही खबर का अभाव किसी त्रासदी से कम नही है। ताजा लोकसभा चुनावों में इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। एक दशक पहले जब आज की तरह सूचना क्रांति का बोलबाला नहीं था तब अखबारों पर भरोसा था और अखबारों का खबर पर भरोसा था। अनेक स्थानों पर खबर की रफ्तार सुस्त थी। लेकिन देर से ही सही जानकारी सटीक मिलती थी। तब चुनावी विश्लेषणों से काफी हद तक यह संकेत मिल जाता था कि चुनावी हवा का रूख किस दिशा में है। चुनाव नतीजों के बाद अधिकतर अखबारों की खबर होती थी कि अनुमान के मुताबिक ही नतीजे मतदान पेटियों से निकले। अखबारों का अपना आकलन, सपाट रिपोर्टिंग और सपाट नतीजे। राज्यों के चुनावों में भी कमोवेश ऐसा ही आकलन होता था।

लेकिन अब ऐसा नहीं हैं। मतपेटियों का स्थान इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन ने लिया है। वहीं प्रचार का काम पोस्टर, दीवान लेखन व ध्वनि प्रचार के स्थान पर अखबारों ने संभाल लिया है। लेकिन प्रचार के इस तरीके के तहत अखबारों में चुनावी खबरों ने विज्ञापन का रूप ले लिया है। उत्तर प्रदेश में चुनावी जायजा लेते हुए राज्य के एक प्रमुख अखबार को पढ़ते हुए उसकी एक खबर पर नजर पड़ी कि ‘मीडिया के घोड़े भी चुनावी मैदान में’। यह खबर चौंकाने वाली थी, इसलिए उसे ध्यान से पढ़ा। उसका सारांश था कि कुछ अखबारों ने चुनावी समर में अपनी बोली लगा ली है। लोकतंत्र के लिहाज से देश के सबसे धनी इस राज्य के बड़े अखबार घराने भी बोली लगाने वालों में हैं। यह कोई नहीं बल्कि राज्य का ही तीसरा अखबार बता रहा है। चुनावी बिगुल बजते ही इन अखबारों ने बाकायदा अपना पैकेज प्रिंट कर हरेक पार्टी के उम्मीदवारों या उनके प्रबंधकों से संपर्क साधा। एक अखबार की चुनावी नीति है कि वह तय पैकेज में उम्मीदवार की हरेक खबर को विज्ञापन रेट पर छापेगा। जिससे उसकी बात नहीं बनी, पूरे चुनाव में उसकी एक भी खबर नहीं छपी। उसके प्रचार में कोई राष्ट्रीय नेता गया तो संबंधित खबर अंदर कहीं सिंगल कालम में देकर अपना फर्ज अदा कर लिया। दूसरे अखबार का एक मुश्त रकम पर प्रचार के दरम्यान दो टेबलायड, विज्ञापन के साथ प्रमुख खबरों का पैकेज था। दरअसल, उम्मीदवार इस गुमान में रहते हैं कि मीडिया ही हवा बनाता है, उन्होंने सौदा कर लिया। उनकी पार्टियां गौड़ हैं। जो सौदा नहीं करते, वह सार्वजनिक रूप से अखबारों पर बिकने के आरोप लगा रहे हैं।

दिलचस्प है कि यही अखबार में अपने अखबार में चुनाव में मतदान के लिए नियमित जन जागरण अभियान भी चला रहे हैं। उनका यह प्रयास शायद यह बताने के लिए है कि हमारे पास वोट डलवाने की की ताकत है। उसकी कीमत है। लेकिन यह इतनी ज्यादा है कि हर उम्मीदवार दांव नहीं लगा सकता। इसलिए कई उम्मीदवारों ने इस समस्या पर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया। कुछ ने प्रेस काउंसिल में शिकायत दर्ज कराई। कई ने अपनी चुनावी सभाओं में अखबारों पर बिकने का आरोप मढ़ा। लेकिन अनुभव में यही आया कि कोई संस्था इस पर पहल नहीं कर पाई। प्रचार के बदले तरीके में अखबारों को अपनी भूमिका समझनी चाहिए। उनके विज्ञापन लेने पर कोई मनाही नहीं है। लेकिन विज्ञापन को विज्ञापन की तरह होना चाहिए। खबर विज्ञापन के रेट पर छपे और नीचे कहीं किसी ऐजेंसी का जिक्र न हो तब यह भ्रम होता है कि वह अखबार की अपनी खबर है। लेकिन वह है विज्ञापन जिसका अखबार ने रेट तय किया है। उम्मीदवार की तरफ जो खबर आती है, उसे उसी रूप में विज्ञापन रेट पर छाप दिया जाता है। दरअसल, यह उन पाठकों के प्रति बेईमानी है जो अखबार खरीदते हैं। खबरों को वह सच मानते हैं। उन पर धारणा-अवधारणा बनकर चर्चा होती है। लोकत्रंत के लिए यह बेहद जरूरी है। लेकिन जब खबरों को पेश करने का तरीके से मालूम ही न पड़े कि वह खबर है या विज्ञापन, तब यह एक गंभीर सवाल है। अपनी बोली लगाकर अखबारों ने खबर और विज्ञापन का फर्क मिटा दिया है। ध्यान रखने की बात है कि अखबार एक दस्तावेज होता है जिसे कितने ही पाठक सहज कर रखते हैं। इसीलिए यह माध्यम खबरिया चैनलों से सशक्त है। चैनलों की खबरों की तुलना में अखबार की खबरों की उम्र कहीं ज्यादा होती है।

ध्यान रखना चाहिए कि मीडिया के प्रचार से सरकार बनती और बिगड़ती नहीं है। ऐसा होता था तो पिछले लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में राजग का शासन होना चाहिए था। मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री नहीं बनती। मध्य प्रदेश में छह साल पहले दिग्विजय सिंह की सरकार नहीं उखड़ती। खबरों के अनुमान से उलटा हुआ। मायावती को उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत मिला। उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में हरेक अखबार का दावा था कि लटकी विधानसभा होगी। चुनाव के एन वक्त एक गंभीर चैनल का सर्वे था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा नंबर एक पर है। लेकिन यह सर्वे एक सोच-समझा खेल था। इसका मकसद था कि ऐसे सर्वे से उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों को वोट उस दल को थोक भाव में मिल जाएगा जिसने उसके सहारे राज्य की राजनीति में पैर पसार रखे हैं। इतना खेल होने के बाद भी मायावती ने बिना किसी प्रचार के अपने दम पर राज्य की राजनीति की धुरी बन गईं। चुनाव के नतीजों ने सबकी पोल खोल दी। दरअसल समाचार माध्यमों को जमीन सूंघने की फुर्सत नहीं है। इसलिए प्रचार के मामले में संबंधित संस्थाओं को गंभीर होना चाहिए। साथ ही पार्टियों को ध्यान रखना चाहिए कि उसने अपनी खबर खरीद तो नहीं ली हैं। चुनाव लोकतंत्र का पहिया है। इसकी धुरी में विज्ञापन के रेट पर खबरों का तेल नहीं डाला जाना चाहिए। ऐसा होगा तो नतीजे अनुमान के मुताबिक नहीं निकलेंगे और जगहंसाई अलग होगी।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

रंग में डूबे सियारों की होली


यह लेख आज जनसत्ता ने छापा है, आपसे सांझा कर रहा हूं।

हालिया फिल्म गुलाल का एक डायलाग है- गुलाल असली चेहरे को छुपा देता है।शायद बात सही भी है लेकिन गुलाल की रंगत भी कई बार चेहरे के पीछे के दूसरे रंग को नहीं छिपा पाती है। कुछ ऐसा ही देखने को मिला इस होली में, यह होली सर को झूका देने वाली थी, राजनीति के झंडाबरदारों की होली में बेशर्मी सर चढ़कर बोल रही थी। होली के काफी पहले ही कई नेताओं ने मुबंई हमलों के विरोध में या यूं कहे अफसोस जताने की विवशता में, होली ना खेलने का खुला चुनावी एलान कर दिया था। लेकिन वो नेता ही क्या जो शब्दों के रंग बिखेरना और उन्हे कूटनीति के तेल से मिटाना ना जानता हो। अब नेताजी ने मूंह से कह दिया था कि होली के दिन रंग अबीर नहीं उड़ेगा तो उन्होने होली के एक दिन पहले ही खुद को समर्थकों के साथ गुलाल से सराबोर कर लिया, आखिर वादें के मुताबिक अगले दिन उन्हे रंग गुलाल से दूरी बना कर रखनी थी,
वो कहते है ना कि काले रंग पर कोई रंग नहीं चढता भले ही उसे कितने ही चटक रंगो से क्यों ना छिपाया जाए, मुंबई हमलों के पीड़ित परिवारों को लेकर इन्हे कितना दुख है ये गुलाल में चेहरा छिपाने के वाबजूद सामने आ ही गया, कवरेज के लिहाज से सबसे पहले प्रधानमंत्री पद की प्रतिक्षा सूची में खड़े नेता के घर पहूंचा तो दरवाजे पर ही नोटिस लगा हुआ था, जिस पर लिखा था - मुंबई हमलों के पीड़ित परिवारों के दुख में शामिल होते हुए हमने होली ना मनाने का निर्णय लिया है। जाहिर है मीडिया के प्रवेश पर भी पाबंदी थी, कुछ देर उनके घर के बाहर खड़े रहे, पूर्व परिचित गार्ड ने बताया, साहब कुछ खास लोगो से ही गुलाल लगवा रहे है। थोड़ी देर में ही उसकी बात सच होती नजर आई कुछ खास गाडिया जिसमें गुलाल लगाए लोग बैठे थे, बंगले के अंदर जा रही थी, इन गाड़ियों में बैठे लोग वो सियार थे जो रंग से नहीं रंगत से अपने सियार दोस्त को पहचान लेते है।
बहरहाल कुछ देर तक यह नजारा देखने के बाद हम एक पार्टी के अध्यक्ष के निवास पर पहूंचे, यहां निराशा हाथ नहीं लगी क्योकि अध्यक्ष जी गुलाल में सराबोर सभी का स्वागत करने को तैयार बैठे मुस्करा रहे थे, ठोल के साथ होली खेले रघुवीरा .. की गूंज थी, शिव का भेष धर एक बच्चा अध्यक्ष जी के सामने नृत्य पेश कर रहा था और बीच -बीच में एक बटन की सहायता से उसकी जटाओं से निकलती गंगा की धार अध्यक्ष जी के पैरों पर पड़ कर खुद को कृताज्ञ महसूस कर रही थी। बालक शिव द्वारा बार - बार की जा रही इस लीला पर अध्यक्ष जी भाव विभोर हुए जा रहे थे। मुझे दिल्ली-6 का एक दृश्य याद आ गया जिसमें विधायिका के पहूंचने पर रामलीला को बीच में ही रोक दिया जाता है और राम लक्ष्मण हनुमान सभी माला पहना कर विधायिका का स्वागत करते है फिर शिव अपना तांडव भी पेश करते है, आवाज गूंजती है- भगवान भी कुर्सी का महत्व समझते है। बचपन में मेरे गांव सिहावल में रामलीला के मंचन के दौरान लोग राम लक्ष्मण बने कलाकारों के चरण छूते थे रामलील शुरु होने से पहले क्षेत्र के नेता आकर कलाकारों को माला पहनाते थे। गांव का वह रामलीला क्षेत्र हमारे लिए आस्था का मंदिर होता था आस्था आज भी है बस उसका दिशा परिवर्तन हो गया है, वैसे भी मौका परस्ती का ऊंठ हमेशा वक्त की करवट को देखकर रंग बदलता है। पहले होली पर बाबू जगजीत सिंह की बिलवरिया तान होली के रंग में वीर रस घोल देती थी, सुर और तान आज भी छेड़े जाते है लेकिन अब वीर रस की मांग कम है, वीर रस के बिलवरिया की जगह चापलूसी की चालीसा ने ले ली है। चुनाव के ठीक पहले आई इस होली में हर जगह इसी चालीसा की तान सुनाई दे रही थी, एक अन्य नेता को टिकिट के इच्छुक लोग लड्डूओं से तौल रहे थे, इस तौल मोल में कई सारे लड्ड़ूओं का चूरा बन जमीन पर गिर गया जिसे उठा कर वापस तराजू पर रख दिया गया, इसके बाद यहीं लड़डू वहां मौजूद लोगो को बांटे गए, लड्ड़ू देख कर ही लग रहा था कि वह खाने के लिए नहीं तौलने के लिए ही बनाए गए है,पर जोगीरा की तेज तान के बीच अपने नेता को खुश करने के लिए लोगो ने लड्डू मूंह में डाल भी लिए और उसकी मिठास का आनंद भी उठाया।
बहरहाल नेताओं की इस होली के नजारे यही खत्म नहीं हुए,होली पर जहां एक दूसरे के मुंह में गुछिया जबरदस्ती डाली जाती है वहीं प्रदेश स्तर के भगवा नेता के यहां गुछिया और कचौरी को चाकू से आधा-आधा काटकर पसोरा जा रहा था,उनके खासमखास मुस्कराते हुए स्टाल के पास खड़े भीड़ पर नजर रखे थे, एक ने संतो जैसी मुस्कराहट के साथ मेरी तरफ देखा , जिसका सीधा मतलब था खबरदार जो एक पीस से ज्यादा उठाया। संभवत कार्यकर्ताओं की बढ़ती भीड़ के कारण उन्हे ऐसा करना पड़ा होगा। खैर होली बीत गई और नेताओं ने अपने अपने मतलब का गुलाल भी पोता ना सिर्फ अपने चेहरे पर बल्कि हमारे आपके चेहरों पर भी।

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

चांदनी चौक टू चाइना घोर संयोगो से भरा सफ़र






पंकज रामेन्दू आपको इस हफ्ते सीसी2सी यानी चांदनी चौक से चाइना की यात्रा करने से मना कर रहें हैं---


चांदनी चौक टू चाइना रिलीज़ होने से पहले अक्षय कुमार ने अपनी फिल्म के प्रमोशन के दौरान कहा था कि मेरी फिल्म को दिमाग से नहीं दिल से देखना। तकनीकी तौर पर तो दिल का सोचने में कोई भूमिका नहीं होती है लेकिन अगर हम अक्षय की बात को साहित्यिक नज़रिये से लेकर भी फिल्म को देखते हैं तो इस फिल्म को देखने के लिए दिल भी गवारा नहीं करेगा।
चांदनी चौक टू चाइना एक ऐसी फिल्म है जिसे देखते हुए आप लगेगा की आप किसी ठेले पर बिकने वाले उपन्यास को पढ़ रहे हैं जिसमें कहानी को आगे बढ़ाने के लिए घोर संयोगो का सहारा लिया जाता है। यहां तक भी रहता तो ठीक था लेकिन फिल्म में जिस तरह से अक्षय ने अपनी कॉमेडी का सहारा लिया वो ऐसा लगता है जैसे अक्षय को अब सिर्फ ये ही एक्टिंग आती है।
एक विदेशी फिल्म के अंदाज़ में शुरू हुई इस फिल्म की कहानी चाइना से शुरू होती है जहां एक लड़ाका ल्यू शैंग जो चाइना को बचाने के लिए हमेशा लड़ता रहता है कि लड़ाई के दौरान मौत हो जाती है और वहां एक गांव पर विलेन होजो का कब्ज़ा हो जाता है, होजो से गांव को बचाने के लिए गांववाले भगवान से प्रार्थना करते हैं और उन्हें मालूम चलता है कि ल्यू शैंग का इंडिया में पुनर्जन्म हुआ है, यहां से फिल्म में अक्षय यानि सिद्धू आते हैं जो कि चांदनी चौक टू चाइना के परांठा वाली गली में एक बावर्ची है औऱ मिथुन यानि दादा के ढाबे पर काम करता, सिद्धू एक ऐसा किरदार है जो मेहनत से ज्यादा किस्मत पर भरोसा करता है औऱ उसका दादा उसे हमेशा समझाता रहता है कि ज़िंदगी में जो होता है वो मेहनत होती है, सिद्धू की जिंदगी में एक और किरदार है वो हे ज्योतिष चॉपस्टिक यानि रणवीर शौरी। वो सिद्धू को बेवकूफ बनाता है औऱ चाइना से आए लोग जो अक्षय को ल्यू शैंग का पुनर्जन्म मानते हैं और उसे होजो का मारने के लिए चाइना ले जाना चाहते हैं उनकी इस बात को अक्षय से छुपा लेता है और ये बताता है कि वो चाइना का एक राजा है, अक्षय इस बात को मानते हुए चाइना जाने के लिए तैयार हो जाता है, इसी बीच एक औऱ किरदार है दीपिका जो एक कंपनी की मॉ़डल है, दीपिका का ही दूसरा रोल है जो चाइनीज़ लुक में दिखी है वो होजो के गैंग में शामिल है। ये दोनो दीपिका बहन है जो चाइनीज़ फादर औऱ इंडियन मदर की संताने है यहां फिर संयोग और दोनों बिछड़ जाती है, फिल्म के अंत में दोनो मिलती है, मिथुन को होजो मार देता है अक्षय को पूरी तरह तोड़ दिया जाता है, दीपिका के पिता अक्षय को मार्शल आर्ट सिखाते हैं, अक्षय यानि सिद्धू जो अपने दादा यानि मिथुन को दिलोजान से चाहता है उसकी मौत हो जाती है लेकिन पूरी फिल्म में अक्षय के चेहरे पर वो दर्द कहीं नज़र नहीं आता है, यहां तक कि मार्शल आर्ट सीखने के दौरान भी सिर्फ कॉमेडी बल्कि यूं कहें ज़बर्दस्ती की कॉमेडी को घुसाया गया है। अक्षय कुमार की कॉमेडी अब उबाने लगी है हर फिल्म में वो एक जैसे ही नज़र आते हैं, रणवीर शौरी जैसे परिपक्व कलाकार भी फिल्म में कुछ जान नहीं डाल पाये, मिथन चक्रवर्ती थोड़ा बहुत प्रभावित करते हैं और दीपिका पादुकोण भी अच्छी एक्टिंग कर गई है, हालांकि फिल्म में दीपिका के चाइनीज़ लुक की तारीफ करनी होगी, जिसमें वो वाकई में चाइनीज़ दिखती है, और अपनी एक्टिंग से दर्शकों को प्रभावित कर जाती है। कुल मिलाकर चांदनी चौक टू चाइना जैकी चैन की एक फिल्म रिवेन्ज की कॉपी लगती है, जिसे मनमोहन देसाई के मसाले के साथ पकाने की कोशिश की गई लेकिन फिल्म में स्क्रिप्ट की जो आंच थी वो सही तरह से नहीं पड़ सकी और कुल मिलाकर ये फिल्म जला हुआ खाना साबित होती है।