मंगलवार, 17 जून 2014

पिताजी का जाना

हम लोग उन्हे पिताजी क्यों कहते थे, पता नहीं ? यह एक सम्बोधन था जो चल पड़ा था। धीरे – धीरे श्री हरिनारायण अवस्थी हम सभी के लिए पिताजी हो गए। मैं जब उनसे पहली बार मिला , करीब आठ साल पहले तब वे 80 बंसत पार कर चुके थे। कान में सुनने की मशीन लगी थी, फिर भी उनसे बात करने के लिए जोर से बोलना पड़ता था। ठहाका लगाकर वे कहते , मैं फायदे में ही रहता हूं, सुनना कम पड़ता है और जितना मर्जी बोलता रहता हूं। पिताजी कोई साहित्यकार नहीं थे , दार्शनिक भी नहीं, समाज सेवक या आंदोलनकारी तो बिल्कुल भी नहीं । ऐसा कोई भी संबोधन उन्हे सीमित करता था। वे सिर्फ पिताजी थे। हर दौर में समाज को पिताजी जैसे बुजुर्ग की जरूरत होती है जिनके पास कोई पद नहीं होता , लेकिन उनका होना ही समाज के होने का आधार होता है। हलांकि वे उत्तर प्रदेश सरकार में पीसीएस अधिकारी रहे थे। इस रूतबे का गुमान उन्हे छू भी नहीं पाता था। अपने अफसरी के दिनों को कुछ यूं बयां करते, ‘नियम लागू करवाने वाले को कविताएं जरुर पड़नी चाहिए, तभी वह पहले और आखिरी आदमी को समझ सकता है।‘ साहित्य के बारे में कहते कि पहली बार पढ़ने पर किसी किताब से सिर्फ परिचय हो पाता है , समझ आती है दूसरी बार पढ़ने पर और तीसरी बार पढ़ने पर ही उससे दोस्ती हो पाती है, इसके बाद आप पर है कि दोस्ती कितनी घनिष्ठ करना चाहते हो। पिताजी के पास साहित्य को देखने की अलग ही नजर थी। जिस भी किताब को पढ़ते , उसके हर पन्ने पर अपना मत लिखते जाते। उसके बाद लेखक को पोस्टकार्ड लिखते। धन्य हो जाते होंगे वे लेखक जिन्हे इतने सुधी पाठक का पत्र मिलता होगा। पिताजी ने मोबाइल कभी रखा नहीं , कहते इससे खुशबू का संचार नहीं हो सकता, वह तो चिट्ठी से ही संभव है। भावनाएं एसएमएस से व्यक्त नहीं हो सकती। हमारी हमेशा कोशिश रही कि वे यह ना जान पाए कि अब लोग शादी का निमंत्रण भी फेसबुक से भेज देते हैं। एक ही मोहल्ले में रहते हुए जब तब उनके पोस्टकार्ड मुझे बताते रहे कि वे कितने सक्रिय है और मैं कितना निष्क्रिय। एक दिन मुलाकात के दौरान उन्होने पूछा, आजकल क्या पढ़ रहे हो? मेरे यह कहने पर कि शेखर एक जीवनी को समझने की कोशिश कर रहा हूं। कुछ देर चुप्पी के बाद उन्होने कहा, ‘ अब लगता है कि वह साहित्य नहीं हैं, भारतीयता को और उसके दर्शन को समझना है तो उपनिषदों को पढ़ना चाहिए। मुझे लगा शायद उम्र का तकाजा है जो पिताजी ऐसी बाते कर रहे है। मुझे असमंजस में देख उन्होने शेखर एक जीवनी का एक कथन सुनाया, ‘ मां तुम मर क्यों नहीं जाती । ’फिर बोले, अब बताओं यह किस समाज का आईना दिखाता साहित्य है। वास्तव में पिताजी को दुख इस बात का था कि उन्होने काफी देर से उपनिषदों की तरफ ध्यान दिया, वे जानते थे कि उनके पास ज्यादा समय नहीं है। उनके भीतर हमेशा से जीने की नहीं, जानने की ललक दिखी। विश्व पुस्तक मेले में वे रोज जाना चाहते लेकिन समस्या यह होती कि उन्हे रोज कैसे लेकर जाया जाए, उनका स्वास्थ्य इसकी अनुमति नहीं देता था। पिताजी जब भी मिलते अपनी किताबों का तकादा जरूर करते, मेरी वह किताब वापस करो, अब इस उम्र में मैं फिर से पढ़कर निशान नहीं लगा सकता। तुलसीदास की मानस उनकी पसंदीदा कृति थी, पति - पत्नी के आपसी संबंध को वे अक्सर सेवक स्वामी सखा सिय पी के, गाकर समझाते और इन लाइनों को भी हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा से जोड़ कर कहते, पति कुछ भी कर ले पत्नी के बराबर त्याग नहीं कर सकता। मानस के मर्म को बताते हुए वे सवाल उठाते बंदर और भालू कोई और नहीं आदिवासी ही थे शायद सर्वाधिक पिछड़े आदिवासी। इन आदिवासियों की मदद के बिना एक क्षत्रिय राजकुमार एक ताकतवर ब्राह्मण राजा को नहीं हरा सकता था, अच्छा होता तुलसीदास इस समाज को यह समझा पाते कि राम कथा में पुरूषोत्तम की मर्यादा को बचाए रखने का काम इन आदिवासियों ने ही किया था। आदि काल के यह वासी ही हर दौर में इस देश की रीढ़ थे। अपने अंतिम दिनों में गले में असहनीय तकलीफ के चलते उन्हे बोलने में कठिनाई थी। लेकिन बोलने बतियाने की ललक बरकरार थी। कागज पर सवाल लिखते और इशारे से बताते कि मैं सुन सकता हूं, मानो कह रहे हो अभी तो मैं जवान हूं। अशोक वाजपेयी ने शायद पिताजी को ध्यान में रखकर ही लिखा था- बच्चे एक दिन यमलोक पर धावा बोलेंगे, और छुड़ा ले आएंगे. सब पुरखों को वापस पृथ्वी पर, और फिर आंखे फाड़े विस्मय से सुनते रहेंगे, एक अनन्त कहानी सदियों तक। फ्री टॉक टाइम इस के दौर में जहां मुलाकात मयस्सर नहीं होती, इस समाज को अंदाजा ही नहीं पिताजी के जाने पर उसने क्या खोया है। उनकी पढ़ी हुई एक किताब को देख रहा था .... एक लाइन के नीचे निशान लगा हुआ था, नींद आधी मौत है और मौत पूरी नींद.. हमेशा जगाने की कोशिश करने वाले पिताजी अब गहरी नींद में हैं। वे मर नहीं सकते, उनकी मौत की सच्ची खबर जिसने दी, वो झूठा था।

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