शनिवार, 4 अप्रैल 2009

रंग में डूबे सियारों की होली


यह लेख आज जनसत्ता ने छापा है, आपसे सांझा कर रहा हूं।

हालिया फिल्म गुलाल का एक डायलाग है- गुलाल असली चेहरे को छुपा देता है।शायद बात सही भी है लेकिन गुलाल की रंगत भी कई बार चेहरे के पीछे के दूसरे रंग को नहीं छिपा पाती है। कुछ ऐसा ही देखने को मिला इस होली में, यह होली सर को झूका देने वाली थी, राजनीति के झंडाबरदारों की होली में बेशर्मी सर चढ़कर बोल रही थी। होली के काफी पहले ही कई नेताओं ने मुबंई हमलों के विरोध में या यूं कहे अफसोस जताने की विवशता में, होली ना खेलने का खुला चुनावी एलान कर दिया था। लेकिन वो नेता ही क्या जो शब्दों के रंग बिखेरना और उन्हे कूटनीति के तेल से मिटाना ना जानता हो। अब नेताजी ने मूंह से कह दिया था कि होली के दिन रंग अबीर नहीं उड़ेगा तो उन्होने होली के एक दिन पहले ही खुद को समर्थकों के साथ गुलाल से सराबोर कर लिया, आखिर वादें के मुताबिक अगले दिन उन्हे रंग गुलाल से दूरी बना कर रखनी थी,
वो कहते है ना कि काले रंग पर कोई रंग नहीं चढता भले ही उसे कितने ही चटक रंगो से क्यों ना छिपाया जाए, मुंबई हमलों के पीड़ित परिवारों को लेकर इन्हे कितना दुख है ये गुलाल में चेहरा छिपाने के वाबजूद सामने आ ही गया, कवरेज के लिहाज से सबसे पहले प्रधानमंत्री पद की प्रतिक्षा सूची में खड़े नेता के घर पहूंचा तो दरवाजे पर ही नोटिस लगा हुआ था, जिस पर लिखा था - मुंबई हमलों के पीड़ित परिवारों के दुख में शामिल होते हुए हमने होली ना मनाने का निर्णय लिया है। जाहिर है मीडिया के प्रवेश पर भी पाबंदी थी, कुछ देर उनके घर के बाहर खड़े रहे, पूर्व परिचित गार्ड ने बताया, साहब कुछ खास लोगो से ही गुलाल लगवा रहे है। थोड़ी देर में ही उसकी बात सच होती नजर आई कुछ खास गाडिया जिसमें गुलाल लगाए लोग बैठे थे, बंगले के अंदर जा रही थी, इन गाड़ियों में बैठे लोग वो सियार थे जो रंग से नहीं रंगत से अपने सियार दोस्त को पहचान लेते है।
बहरहाल कुछ देर तक यह नजारा देखने के बाद हम एक पार्टी के अध्यक्ष के निवास पर पहूंचे, यहां निराशा हाथ नहीं लगी क्योकि अध्यक्ष जी गुलाल में सराबोर सभी का स्वागत करने को तैयार बैठे मुस्करा रहे थे, ठोल के साथ होली खेले रघुवीरा .. की गूंज थी, शिव का भेष धर एक बच्चा अध्यक्ष जी के सामने नृत्य पेश कर रहा था और बीच -बीच में एक बटन की सहायता से उसकी जटाओं से निकलती गंगा की धार अध्यक्ष जी के पैरों पर पड़ कर खुद को कृताज्ञ महसूस कर रही थी। बालक शिव द्वारा बार - बार की जा रही इस लीला पर अध्यक्ष जी भाव विभोर हुए जा रहे थे। मुझे दिल्ली-6 का एक दृश्य याद आ गया जिसमें विधायिका के पहूंचने पर रामलीला को बीच में ही रोक दिया जाता है और राम लक्ष्मण हनुमान सभी माला पहना कर विधायिका का स्वागत करते है फिर शिव अपना तांडव भी पेश करते है, आवाज गूंजती है- भगवान भी कुर्सी का महत्व समझते है। बचपन में मेरे गांव सिहावल में रामलीला के मंचन के दौरान लोग राम लक्ष्मण बने कलाकारों के चरण छूते थे रामलील शुरु होने से पहले क्षेत्र के नेता आकर कलाकारों को माला पहनाते थे। गांव का वह रामलीला क्षेत्र हमारे लिए आस्था का मंदिर होता था आस्था आज भी है बस उसका दिशा परिवर्तन हो गया है, वैसे भी मौका परस्ती का ऊंठ हमेशा वक्त की करवट को देखकर रंग बदलता है। पहले होली पर बाबू जगजीत सिंह की बिलवरिया तान होली के रंग में वीर रस घोल देती थी, सुर और तान आज भी छेड़े जाते है लेकिन अब वीर रस की मांग कम है, वीर रस के बिलवरिया की जगह चापलूसी की चालीसा ने ले ली है। चुनाव के ठीक पहले आई इस होली में हर जगह इसी चालीसा की तान सुनाई दे रही थी, एक अन्य नेता को टिकिट के इच्छुक लोग लड्डूओं से तौल रहे थे, इस तौल मोल में कई सारे लड्ड़ूओं का चूरा बन जमीन पर गिर गया जिसे उठा कर वापस तराजू पर रख दिया गया, इसके बाद यहीं लड़डू वहां मौजूद लोगो को बांटे गए, लड्ड़ू देख कर ही लग रहा था कि वह खाने के लिए नहीं तौलने के लिए ही बनाए गए है,पर जोगीरा की तेज तान के बीच अपने नेता को खुश करने के लिए लोगो ने लड्डू मूंह में डाल भी लिए और उसकी मिठास का आनंद भी उठाया।
बहरहाल नेताओं की इस होली के नजारे यही खत्म नहीं हुए,होली पर जहां एक दूसरे के मुंह में गुछिया जबरदस्ती डाली जाती है वहीं प्रदेश स्तर के भगवा नेता के यहां गुछिया और कचौरी को चाकू से आधा-आधा काटकर पसोरा जा रहा था,उनके खासमखास मुस्कराते हुए स्टाल के पास खड़े भीड़ पर नजर रखे थे, एक ने संतो जैसी मुस्कराहट के साथ मेरी तरफ देखा , जिसका सीधा मतलब था खबरदार जो एक पीस से ज्यादा उठाया। संभवत कार्यकर्ताओं की बढ़ती भीड़ के कारण उन्हे ऐसा करना पड़ा होगा। खैर होली बीत गई और नेताओं ने अपने अपने मतलब का गुलाल भी पोता ना सिर्फ अपने चेहरे पर बल्कि हमारे आपके चेहरों पर भी।

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