शनिवार, 20 सितंबर 2008

पहचान तलाशते लोग

दुनियां मेरे आगे.....


उस दिन जब सुबह - सुबह गुड्डू का फोन आया , वह काफी दुखी , निराश और गुस्से में था। बचपन का दोस्त होने के कारण उसकी छटपटाहट मुझे साफ समझ में आ रही थी। उसे शांत कर मैने कारण जानना चाहा। दरअसल उसे मध्यप्रदेश सरकार द्वारा पिछड़ो को दी जाने वाली सुविधाओं के तहत बिजली के स्विच सप्लाई करने का आर्डर लेना था। गुड्डू ने यह धंधा हाल ही में शुरू किया है वह भी बेहद छोटे पैमाने पर। गुड्डू और उसके दो दोस्तों ने इस काम को इस उम्मीद पर शुरु किया कि कुछ कमा खा लेंगे। गुड़्डू का असली नाम हेमकांत वर्मा है असल में वह मध्यप्रदेश में पिछड़ा वर्ग से आता है, अन्य दो लोग जिनके साथ उसने यह छोटा सा व्यापार शुरू किया है वे दोनो सामान्य वर्ग से आते है। बेहद सीमित पूंजी में इन लोगो ने मिलकर यह कारोबार शुरू किया। इसके पीछे सोच यह थी कि गुड्डू पिछडा वर्ग से आता है उसके नाम से लायसेंस लेकर माल की सप्लाई की जा सकती है। इसी प्लानिंग के तहत गुड्डू को अपना जाति प्रमाण पत्र बनवाना था जिसकी जरुरत उसे अपने स्कूल के दिनों में कभी नहीं पड़ी।
करीब दस साल तक स्कूल के दिनों में गुड्डू हमारा सबसे अच्छा साथी था और बढिया बल्लेबाज भी, स्कूल के दिनों में गुड्डू ने कभी खुद को पिछड़ा वर्ग का मान कर कोई दावा पेश नहीं किया उसने कभी कोई छात्रवृति नहीं ली ना ही कभी स्कूल से गणवेश या किताबे मुफ्त में ली। बेहद सरल स्वाभाव का गुड्डू बड़ा होते होते खुद को सामान्य मानने भी लगा था.. साथियों की संगत ने उसे उस समय उसका अस्तित्व भुलवा दिया.. लेकिन वक्त के थपेड़ों और दौरे मुफलिसी ने बार बार उसे बताया कि पिछड़ा वर्ग से आता है और सरकार ने उसके लिए कागज़ों मे ही सही मगर कुछ सोच रखा है ।
बहरहाल जब हेमकांत सरकार की सोच को सही मानते हुए जाति प्रमाण पत्र बनवाने कलेक्ट्रेट पहुंचा तो वहां मौजूद बाबुओ ने उसे पिछड़ा मानने से साफ मना कर दिया,उनका कहना था कि वर्मा कायस्थ होते है। गुड्डू के पास यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त कागज नहीं थे। और किसी भी तरह के शपथपत्र को बाबू तभी मानते हैं जब यह शपथ खुद लक्ष्मीजी ले। बाबूओ द्वारा बताए गए सीधे रास्ते को गुड्डू अपने सीधेपन के कारण समझ ही नहीं पा रहा था। उसे किसी ने सलाह दी कि यदि दिल्ली से कोई होशंगाबाद फोन कर दे तो उसका काम आसानी से हो जाएगा,हालांकि यह सलाह पूरी तरह गलत नहीं भी नहीं थी क्योंकि मेरे एक बार फोन करने से उसका जाति प्रमाण पत्र बन गया। अस्तित्व के अस्वीकार्य का जो अनुभव गुड्डू ने महसूस किया वो बाबुओं की ताक़त की एक झलक दिखाती है। बाबूओं की यह ताकत वहीं है जिसका अनुभव कुछ दिन पहले मोनिका देवी ने लिया जो कहती रही कि वही असली भारत्तोलक है जो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व कर सकती है लेकिन बाबूओं ने उसे बताया कि वह डोपिंग की दोषी है, मोनिका ने चीख-चीख कर अपना गला छलनी कर लिया लेकिन आखिरकार नौकरशाही की बात ब्रह्मवाक्य साबित हुई। इसी कॉलम में पिछले लेख में मैनें लिखा था कि किस तरह हमारे गांव में चाचाजी ने आदिवासी के नाम पर हैंडपंप एलॉट करवा कर अपनी बाउंड्री में लगवा लिया था और वह बेचारा आदिवासी आज तक नहीं जान पाया होगा कि जिस हैंडपंप का पानी वह छू भी नहीं सकता, सरकारी कागजों में उसी हैंडपंप से विकास की धारा बह रही है। इसने यह सिद्ध कर दिया है कि कितनी भी विकेन्द्रीकृत व्यवस्था करके अधिकार स्थानीय निकायों को दे दिए जाए किन्तु सरकारी बाबू धरती पर उस भगवान की तरह हैं जो यह निर्धारित करते हैं कि आप ज़िंदा है या मरे हुए हैं। हाल ही मै बैंक आफ इंडिया ने एक महिला को बर्खास्त किया,वह पिछले बीस सालों से जाली जाति प्रमाण पत्र के आधार पर नौकरी कर रही थी। इस तरह के लाखों मामले होगे लेकिन बाबुओं की भलमनसाहत से यह मामले दबे रह जाते हैं और जाली आदमी का ही जाल फैला रहता है।
कितने ही केस ऐसे है जिन पर वर्षो से जांच की धूल चढ़ रही है और फ़र्जियत आराम से नौकरी की चाशनी में तैर रही है। गुड्डू हो या मोनिकादेवी ये सभी उदयप्रकाश की कहानी के मोहनदास है जो खुद को मोहनदास साबित करने के लिए शहडोल से दिल्ली तक आवाज लगाता है लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था के आगे उसकी एक नहीं चलती और अंतत: वह अधमरी सी हालत में खुद के मोहनदास ना होने पर ही विश्वास कर लेता है। हरिशंकर परसाई ने अपने एक व्यंग्य में नौकरशाही के बारे में लिखा है कि कैसे एक सरकारी अफसर शार्क को अपने मूंह में जकड़ लेता है जो कुछ देर पहले तक उसके सामने समूद्र में अपनी ताकत का बखान कर रही थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो मोहनदास और गुड़्डू का हक मारने का संवैधानिक अधिकार राजनीतिक पार्टियों को मिला हुआ है। किसी एक को मत देने का मतलब होता है आप दूसरे को सत्ता में नहीं देखना चाहते। लेकिन हमारे वोट से अधिकार पाए यही नेता सरेआम पैसा लेकर संसद में हमारे विश्वास को गिरवी रखते है और आम आदमी मोनिका, मोहनदास और गुड्डू की तरह कुछ नहीं कर सकता। कुल मिला कर अपने अस्तित्व को तलाशते ये लोग शायद किसी दिन नौकरशाही के सच को अपना सच मान बैठेगें और यह दोहराते नज़र आएगे कि बाबूजी आप सही कहते हैं.....

साभार - जनसत्ता १० सितम्बर 2008

2 टिप्‍पणियां:

  1. वक्त कुछ ऐसा ही आ गया है कि आदमी की पहचान वो खुद नहीं तय कर पाता... दूसरे लोगों के पास ये अधिकार है कि वो आपको बताएं कि आप कौन हैं... और जिनके पास अधिकार है वो मनमानी तो करेगा ही...

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