गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

ना कागज़ की कश्ती, ना बारिश का पानी




मुबंई हमलों से ध्यान बटाने के सरकारी प्रयास शुरु हो चुके है, पहली कोशिश महाराष्ट्र सरकार ने की है। राज्य सरकार के श्रम मंत्रालय ने बालिका वधु, कृष्णा, उतरन जैसे कई सीरियलों को बच्चों से ज्यादा काम करवाने को लेकर नोटिस जारी किया है। महाराष्ट्र में बाल श्रमिकों की अच्छी खासी तादात है लेकिन मीडिया मोह के चलते सरकार को सेलीब्रिटी बच्चे ही नजर आए। लेकिन यहां हम महाराष्ट्र सरकार के इस नोटिस के बहाने बात करने की कोशिश कर रहे है कि किस तरह बाजार ने बचपन पर कब्जा कर लिया है। मां बाप इस बाजार के शिकार है, सबको अपना बच्चा नम्बर वन ही चाहिए टू नहीं। मेरा यह लेख जनसत्ता में 22 अक्टूबर को प्रकाशित हुआ था। इस नोटिस की आड़ में फिर आपसे सांझा कर रहा हूं।



टीवी पर मुंबई वर्ली से मटकी फोड़ का सीधा प्रसारण चल रहा था। गोविंदाओं ने घेरे बनाकर पिरामिड तैयार कर लिया था अंत में एक छोटे से बच्चे को कृष्ण का रुप धर सबसे ऊपर चढाने की कोशिश की जा रही थी। इतनी भी़ड़ हो हल्ला और ऊचाई देखकर बच्चा डर गया और जार जार रोने लगा। वहां मौजूद लाखों लोग वैसे ही उस तमाशे को देख रहे थे जैसे हम घर में बैठकर टीवी पर। टीवी कैमरा उस बच्चे पर फोकस किये हुए थे। सभी तमाशे का मजा ले रहे थे।हर कोई चाह रहा था बाल कृष्ण ऊपर तक पहुंच कर उन्हे दर्शन दे। चारों तरफ चीख चिल्लाहट का माहौल, कानफोड़ू माहौल में रिपोर्टर चीख-चीख कर ताज़ा जानकारी देने की कोशिश कर रही थी। इस मटकी फोड़ प्रतियोगिता में शामिल लोगो का घ्यान बच्चे से ज्यादा वहां लगे कारपोरेट बैनरों पर था जिन पर ईनाम की राशि लिखी थी। यही तो वो खास चीज थी जिसने बच्चे को इतनी ऊंचाई पर पहुंचा दिया था, मां बाप की इच्छा थी कि उनका बेटा और ऊंचा जाए, बच्चे को ऊंचाई पर पहुंचाने के लिए उन्हें थोड़ी कुर्बानी तो देनी ही है, इसलिए वो बच्चे को रोने पर ज़्यादा ध्यान नहीं दे रहे थे। इसी बीच ब्रेक हो गया विज्ञापन आ रहा था - मां और दादी छोटे बच्चे को बोलना सीखा रहे है - मां बोल बैठा मां , कुछ देर बाद बच्चा मां के बजाए मनी कहता है यह विज्ञापन किसी वित्तीय फर्म का था। दूसरा विज्ञापन एक टूथपेस्ट का था जिसमें बच्चों से टीवी पर आने के लिए फोटो भेजने के लिए कहा जा रहा था। सोचने पर मजबूर हो गया कि बाज़ार ने बचपन को कैद कर लिया। हर चीज बाजार निर्धारित करने लगा है और बच्चों को बाजार चारे के रुप में इस्तेमाल कर रहा है।

आफिस जाने के लिए घर से बाहर निकला तो यही नजारा पास के स्कूल में देखने को मिला। जनमाष्टमी पर आयोजित कार्यक्रम में छोटे -छोटे बच्चों को कान्हा राधा बनाकर लाया गया था। हर अभिभावक चाहते थे कि उनका बच्चा ही वह तथाकथित विचित्र परिधान प्रतियोगिता जीते, उन्हे इस बात की जरा भी परवाह नहीं थी कि राधा बनी उनकी चार साल की बिटिया उस परिधान को संभाल भी नहीं पा रही। कोई बच्चा रो रहा है तो किसी द्वारिकाधीश का मुकूट उनकी आंखो पर आ रहा है। और अभिभावक उन्हे डांटकर यशोदा का नंदलाला बने रहने पर मजबूर कर रहे थे। कुल मिलाकर चारों ओर बाजारियत अभिभावको के सर चढ़कर बोल रही है। हालिया फिल्म तारे जमीन पर का तात्पर्य लोगो ने यह लगा लिया है कि हमारे बच्चो इस तेजी से बढ़ते प्रतियोगी समाज में हर हाल में तारे की तरह चमकना होगा।

हाल ही में एक रियल्टी शो में जजों ने एक प्रतियोगी बच्चे को इतनी जोर से ड़ांटा कि वह अपना होश ही खो बैठी। हर घर में बच्चे को दौड़ में आगे रहने के लिए डांटा फटकारा जा रहा है। मेरे परिचित का बेटा पढ़ाई लिखाई में औसत से भी नीचे है लेकिन नई कारों और मोबाईल के बारे में उसकी जानकारी गजब की है यह बाजार का असर ही है कि बच्चे अपनी स्वाभाविक ग्रोथ खोते जा रहे है।

गुजरात के नामी शिक्षाविद गिजुभाई वधेका ने खत्म होते इस बचपन को बहुत पहले पहचान कर बाल शिक्षा की अपनी किताब दिवास्वप्न में शांति का खेल खेलते हुए बताया कि ऊं शांति कह देने से ही बच्चे ध्यान करने नहीं बैठ जाते उनके अंदर जो ढेर सारी उर्जा होती है उसे वे खेल कूद कर, आपस में मस्ती कर निकालते है और यही से उनके स्वाभाविक विकास का मार्ग तय होता है।

बचपन में कभी भी पापा के द्वारा मारे गए उस झापड़ का बूरा नहीं लगा जो उन्होने हमेशा मेरी जेब में कंचे और चिये भरे रहने की वजह से मारा था। कभी पड़ोसी अंकल की खिड़की गिल्ली से तोड़ी तो उनकी डांट को भरपूर मजा भी उठाया। कंधो पर बस्ते के बोझ उठाता आज का बचपन शायद ये भूल गया कि आखिर मौज-मस्ती किस बला का नाम होता है। वीडियो गेम में आंखे गड़ाते बचपन शायद वो काग़ज की किश्ती और बारिश के पानी का आनंद उठाना जानता ही नहीं है, क्योंकि मां-बाप अपने लाड़ले में संस्कार डालना चाहते हैं और आज के संस्कार कहते हैं कि कंचे खेलता बचपन हल्का बचपन है, इसमें विकास जैसी कोई बात नहीं है, इससे भला तो ये है कि घर में बैठ कर इंटरनेट पर नज़र जमाओ, अपना होमवर्क करो, खाना खाओ और सो जाओ। हंसता बचपन, धूल मिट्टी से सना हुआ बचपन सिर्फ परेशानियों से घिरा हुआ हो गया है, लेकिन मेरी साड़ी से तेरी साड़ी सफेद कैसे ? के इस दौर में मां बाप भूल जाते हैं कि शिखर पर हमेशा एक ही होता है, जिसका ये कदापि मतलब नहीं है कि बाकि सब कुछ बेकार है। बाजार के इस प्रभाव से बाल सरंक्षण आयोग नहीं बच पाया है कुछ दिन पहले आयोग ने तय किया कि कामकाजी बच्चों के काम करने के घंटो की जांच की जाए,इस जांच के लिए आयोग ने रियल्टी शो और टीवी सीरियल मे काम करने वाले सिलीब्रेटी बच्चों को ही चुना, होटलो,ढाबो पटाखा चूड़ी कालीन कारखानों में काम करने वाले बच्चे आयोग को नजर नहीं आए।

मानिये या नामानिये पर हमारी पीडी का बचपन असल में बचपन था आज तो मां बाप बचपन को खत्म करने के लिए बचपना करने पर ऊतारु है। बचपन में किए गए कई कारनामें आज भी याद आते है चाहे पतंग उड़ाना हो या बेरी तोड्ने के लिए दूर तक जंगल में भटकना या फिर हॉकी के आकार की झाड़ी काटकर उससे हॉकी खेलना। हमेशा कामिक्स में डूबे रहना। जावेद अख्तर की लिखी लाइने"जब मेरे बचपन के दिन थे चांद में परिया रहती थी"आज के बचपन से मेल नहीं खाती पांचवी कक्षा किताब इस बहस से भरी पडी है कि चांद में जीवन की गुंजाईश है या नहीं । बाल कल्पनाओ को बाजार अपनी सुविधा से तोड़ मरोड़ रहा है। आज का बाजार उदय प्रकाश की कहानी अरेबा परेबा के उस बिलौटे की तरह है जो खरगोशो को खाकर एक नई कहानी गढ़ देता है कि खरगोशो को एलियंस ने पत्थर में बदल दिया। और बाल मन के पास बाजार की इस कहानी पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा नहीं है।दरअसल आगे बढ़ाने की होड़ में बचपना कहीं पीछे छूट गया है, निदा फाजली जी ने शायद भविष्य देखकर ही ये बात लिखी होगी, बच्चों के नन्हे हाथों को चांद सितारे छूने दो, दो चार किताबे पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे।

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