बुधवार, 20 मई 2009

भरोसे की कीमत पर..




पत्रकारिता के क्षेत्र में राजेश कटियार की धमक और दखल नया नहीं है, मीडिया को अक्सर आईना दिखाने वाले राजेश जी का यह लेख कुछ दिन पहले जनसत्ता में छपा है। मीडिया की मंडी में बिक रहे और सूचना के अधिकार का अपहरण कर रहे अखबारों और चैनलों की हालात को उन्होने एक त्रासदी के रुप में बयान किया और चेताया भी है........



सूचना क्रांति के दौर में भी सही खबर का अभाव किसी त्रासदी से कम नही है। ताजा लोकसभा चुनावों में इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। एक दशक पहले जब आज की तरह सूचना क्रांति का बोलबाला नहीं था तब अखबारों पर भरोसा था और अखबारों का खबर पर भरोसा था। अनेक स्थानों पर खबर की रफ्तार सुस्त थी। लेकिन देर से ही सही जानकारी सटीक मिलती थी। तब चुनावी विश्लेषणों से काफी हद तक यह संकेत मिल जाता था कि चुनावी हवा का रूख किस दिशा में है। चुनाव नतीजों के बाद अधिकतर अखबारों की खबर होती थी कि अनुमान के मुताबिक ही नतीजे मतदान पेटियों से निकले। अखबारों का अपना आकलन, सपाट रिपोर्टिंग और सपाट नतीजे। राज्यों के चुनावों में भी कमोवेश ऐसा ही आकलन होता था।

लेकिन अब ऐसा नहीं हैं। मतपेटियों का स्थान इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन ने लिया है। वहीं प्रचार का काम पोस्टर, दीवान लेखन व ध्वनि प्रचार के स्थान पर अखबारों ने संभाल लिया है। लेकिन प्रचार के इस तरीके के तहत अखबारों में चुनावी खबरों ने विज्ञापन का रूप ले लिया है। उत्तर प्रदेश में चुनावी जायजा लेते हुए राज्य के एक प्रमुख अखबार को पढ़ते हुए उसकी एक खबर पर नजर पड़ी कि ‘मीडिया के घोड़े भी चुनावी मैदान में’। यह खबर चौंकाने वाली थी, इसलिए उसे ध्यान से पढ़ा। उसका सारांश था कि कुछ अखबारों ने चुनावी समर में अपनी बोली लगा ली है। लोकतंत्र के लिहाज से देश के सबसे धनी इस राज्य के बड़े अखबार घराने भी बोली लगाने वालों में हैं। यह कोई नहीं बल्कि राज्य का ही तीसरा अखबार बता रहा है। चुनावी बिगुल बजते ही इन अखबारों ने बाकायदा अपना पैकेज प्रिंट कर हरेक पार्टी के उम्मीदवारों या उनके प्रबंधकों से संपर्क साधा। एक अखबार की चुनावी नीति है कि वह तय पैकेज में उम्मीदवार की हरेक खबर को विज्ञापन रेट पर छापेगा। जिससे उसकी बात नहीं बनी, पूरे चुनाव में उसकी एक भी खबर नहीं छपी। उसके प्रचार में कोई राष्ट्रीय नेता गया तो संबंधित खबर अंदर कहीं सिंगल कालम में देकर अपना फर्ज अदा कर लिया। दूसरे अखबार का एक मुश्त रकम पर प्रचार के दरम्यान दो टेबलायड, विज्ञापन के साथ प्रमुख खबरों का पैकेज था। दरअसल, उम्मीदवार इस गुमान में रहते हैं कि मीडिया ही हवा बनाता है, उन्होंने सौदा कर लिया। उनकी पार्टियां गौड़ हैं। जो सौदा नहीं करते, वह सार्वजनिक रूप से अखबारों पर बिकने के आरोप लगा रहे हैं।

दिलचस्प है कि यही अखबार में अपने अखबार में चुनाव में मतदान के लिए नियमित जन जागरण अभियान भी चला रहे हैं। उनका यह प्रयास शायद यह बताने के लिए है कि हमारे पास वोट डलवाने की की ताकत है। उसकी कीमत है। लेकिन यह इतनी ज्यादा है कि हर उम्मीदवार दांव नहीं लगा सकता। इसलिए कई उम्मीदवारों ने इस समस्या पर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया। कुछ ने प्रेस काउंसिल में शिकायत दर्ज कराई। कई ने अपनी चुनावी सभाओं में अखबारों पर बिकने का आरोप मढ़ा। लेकिन अनुभव में यही आया कि कोई संस्था इस पर पहल नहीं कर पाई। प्रचार के बदले तरीके में अखबारों को अपनी भूमिका समझनी चाहिए। उनके विज्ञापन लेने पर कोई मनाही नहीं है। लेकिन विज्ञापन को विज्ञापन की तरह होना चाहिए। खबर विज्ञापन के रेट पर छपे और नीचे कहीं किसी ऐजेंसी का जिक्र न हो तब यह भ्रम होता है कि वह अखबार की अपनी खबर है। लेकिन वह है विज्ञापन जिसका अखबार ने रेट तय किया है। उम्मीदवार की तरफ जो खबर आती है, उसे उसी रूप में विज्ञापन रेट पर छाप दिया जाता है। दरअसल, यह उन पाठकों के प्रति बेईमानी है जो अखबार खरीदते हैं। खबरों को वह सच मानते हैं। उन पर धारणा-अवधारणा बनकर चर्चा होती है। लोकत्रंत के लिए यह बेहद जरूरी है। लेकिन जब खबरों को पेश करने का तरीके से मालूम ही न पड़े कि वह खबर है या विज्ञापन, तब यह एक गंभीर सवाल है। अपनी बोली लगाकर अखबारों ने खबर और विज्ञापन का फर्क मिटा दिया है। ध्यान रखने की बात है कि अखबार एक दस्तावेज होता है जिसे कितने ही पाठक सहज कर रखते हैं। इसीलिए यह माध्यम खबरिया चैनलों से सशक्त है। चैनलों की खबरों की तुलना में अखबार की खबरों की उम्र कहीं ज्यादा होती है।

ध्यान रखना चाहिए कि मीडिया के प्रचार से सरकार बनती और बिगड़ती नहीं है। ऐसा होता था तो पिछले लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में राजग का शासन होना चाहिए था। मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री नहीं बनती। मध्य प्रदेश में छह साल पहले दिग्विजय सिंह की सरकार नहीं उखड़ती। खबरों के अनुमान से उलटा हुआ। मायावती को उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत मिला। उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में हरेक अखबार का दावा था कि लटकी विधानसभा होगी। चुनाव के एन वक्त एक गंभीर चैनल का सर्वे था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा नंबर एक पर है। लेकिन यह सर्वे एक सोच-समझा खेल था। इसका मकसद था कि ऐसे सर्वे से उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों को वोट उस दल को थोक भाव में मिल जाएगा जिसने उसके सहारे राज्य की राजनीति में पैर पसार रखे हैं। इतना खेल होने के बाद भी मायावती ने बिना किसी प्रचार के अपने दम पर राज्य की राजनीति की धुरी बन गईं। चुनाव के नतीजों ने सबकी पोल खोल दी। दरअसल समाचार माध्यमों को जमीन सूंघने की फुर्सत नहीं है। इसलिए प्रचार के मामले में संबंधित संस्थाओं को गंभीर होना चाहिए। साथ ही पार्टियों को ध्यान रखना चाहिए कि उसने अपनी खबर खरीद तो नहीं ली हैं। चुनाव लोकतंत्र का पहिया है। इसकी धुरी में विज्ञापन के रेट पर खबरों का तेल नहीं डाला जाना चाहिए। ऐसा होगा तो नतीजे अनुमान के मुताबिक नहीं निकलेंगे और जगहंसाई अलग होगी।

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